बात इसी साल 10 फरवरी की है। लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नौकरशाहों को निशाने पर ले रहे थे।
उन्होंने अपनी टिप्पणी में कहा था, “सब कुछ बाबू ही करेंगे। आईएएस बन गए मतलब वो फ़र्टिलाइज़र का कारखाना भी चलाएँगे। केमिकल फ़ैक्टरी भी वही चलाएँगे। हवाई जहाज़ भी वही चलाएँगे। ये कौन सी बड़ी ताक़त बना कर रख दी है हमने? बाबुओं के हाथ में देश दे कर हम क्या करने वाले हैं?”
उनके तेवर में नाराज़गी थी। उस वक़्त प्रधानमंत्री मोदी की ‘बाबुओं’ पर की गई टिपण्णी की ख़ूब चर्चा हुई। कई अधिकारियों ने उनके इस बयान की आलोचना भी की।
लोगों ने पीएम मोदी की बाबुओं की आलोचना को प्रशासनिक पदों पर पिछले दरवाज़े से एंट्री की योजना से जोड़ा। जहाँ बाबुओं की जगह वो एक्सपर्ट लाने की बात कर रहे थे।
पिछले दरवाज़े से प्रशासनिक पदों पर एंट्री योजना की शुरुआत ख़ुद पीएम मोदी ने की थी। इसके तहत यूपीएससी की परीक्षा पास किए बगैर भी प्रशासनिक अधिकारी बनाया जाता है।
शिक्षा मंत्रालय में सचिव के पद पर रहे अनिल स्वरूप ने प्रधानमंत्री के बयान पर सहमति तो जताई, लेकिन कई सवाल भी किए। ट्विटर पर उन्होंने लिखा, “जो आईएएस अधिकारी मोदी के इर्द-गिर्द काम करते हैं, ये मौक़ा है, उन्हें अपने भीतर झाँक कर देखने का। बाबुओं की कैसी छवि प्रधानमंत्री के सामने बना कर रख दी है।”
उन्होंने सरकार से सवाल भी पूछा कि ऐसा है, तो आरबीआई गवर्नर के पद पर फिर आईएएस को क्यों बिठाया, इंश्योरेस डेवेपलपमेंट अथॉरिटी का हेड फिर आईएएस अधिकारी को क्यों बनाया। और ऐसे ही कई दूसरे उदाहरण दिए।
मोदी बाबुओं को लेकर विरोधाभासी क्यों?
सात जुलाई को हुए कैबिनेट विस्तार में मोदी ने अपनी कैबिनेट में सात पूर्व नौकरशाहों को जगह दी है। पीएम मोदी एक तरफ़ तो बाबुओं को सीमित करने की बात कर रहे हैं तो दूसरी तरफ़ मंत्री पद के लिए नौकशाहों की तरफ़ देख रहे हैं।
कल तक जो बात पूर्व आईएएस अधिकारी अनिल स्वरूप पूछ रहे थे। आज वही सवाल बाक़ी लोग पूछ रहे हैं। क्या मोदी सरकार को नेता नहीं अब बाबू चलाएँगे?
अपनी नई कैबिनेट में उन्होंने सात मंत्रियों को 10 महत्वपूर्ण मंत्रालय दिए हैं। सबसे ज़्यादा चर्चा अश्विनी वैष्णव की है। जो कुछ साल पहले राजनीति में आए और सीधे रेल और टेलिकॉम जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय उन्हें दे दिए गए हैं।
इसके अलावा हरदीप सिंह पुरी और आरके सिंह को पदोन्नति देकर कैबिनेट मंत्री बना दिया। हरदीप पुरी को शहरी विकास मंत्रालय के साथ पेट्रोलियम जैसे बड़े मंत्रालय सौंपे गए हैं, वहीं आरके सिंह को पावर और रिन्यूएबल एनर्जी मंत्रालय मिला है। दोनों पूर्व में नौकरशाह ही थे।
जेडीयू कोटे से कैबिनेट मंत्री बने आरसीपी सिंह भी पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और अब वो स्टील मंत्रालय का पदभार संभालेंगे।
विदेश मंत्री एस जयशंकर पहले से कैबिनेट में है और वो भी नौकरशाह रह चुके हैं। राज्यमंत्री के पद पर सोम प्रकाश और अर्जुन मेघवाल भी पूर्व में ब्यूरोक्रेसी का हिस्सा रह चुके हैं।
सोम प्रकाश कॉमर्स मंत्रालय में राज्य मंत्री हैं, तो अर्जुन मेघवाल संसदीय कार्य राज्य मंत्री हैं और साथ में संस्कृति मंत्रालय में राज्य मंत्री का प्रभार भी संभाल रहे हैं।
बतौर मुख्यमंत्री भी नौकरशाह थे पहली पसंद
लेकिन क्या ये प्रधानमंत्री मोदी का काम करने की पुरानी शैली है? राजीव शाह टाइम्स ऑफ़ इंडिया में राजनीतिक मामलों के संपादक के तौर पर काम कर चुके हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर राजीव शाह ने नरेंद्र मोदी को डेढ़ दशक तक कवर किया है।
बीबीसी से बातचीत में वो कहते हैं, “मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने कभी किसी नौकरशाह को राज्य में मंत्री पद नहीं दिया था। मोदी के गुजरात में केवल एक ब्यूरोक्रेट आरएम पटेल को एमएलए बनाया था। उनकी जीत में मोदी का अहम रोल था। पर उन्हें मंत्री पद नहीं दिया गया। लेकिन ये सच है कि बतौर मुख्यमंत्री जब वो मंत्रालय की समीक्षा बैठकों में जाते, तो मंत्रियों से ज़्यादा तवज्जो नौकरशाह को देते थे।”
इस बारे में राजीव शाह अपने साथ हुआ एक क़िस्सा सुनाते हैं। वे बताते हैं, “एक बार मेरे पास शहरी विकास मंत्रालय की कोई प्रेस रिलीज़ आई, जिसमें किसी नई योजना के बारे में मंत्री का बयान भी था। मुझे ख़बर के बारे में और जानकारी जुटानी थी, तो मैंने सीधे मंत्री को फ़ोन किया। जब मंत्री से उस विषय में पूछा तो मंत्री को उस योजना की भनक तक नहीं थी। प्रेस नोट तो दूर की बात है। मंत्री महोदय ने मुझसे 10 मिनट का वक़्त माँगा, अपने सेक्रेटरी से पूछा और फिर पता चला कि मुख्यमंत्री के साथ बैठक में बात हुई थी, जिसके बाद प्रेस रिलीज़ निकाली गई।”
राजीव कहते हैं, उस वक़्त शहरी विकास मंत्रालय आईजे जडेजा देख रहे थे। लेकिन राजीव साथ ही ये भी जोड़ते हैं कि तब मुख्यमंत्री मोदी ब्यूरोक्रेट्स से काम करवाने में सहज ज़रूर महसूस करते थे, लेकिन अपने फ़ैसलों के लिए नौकरशाही पर कभी निर्भर नहीं रहते थे। उनके फ़ैसले हमेशा राजनीतिक होते थे और वो ख़ुद फैसले लिया करते थे।
राजीव इसके पीछे एक वजह ये भी मानते हैं कि मोदी कैबिनेट में गुजरात में कोई उतना काबिल मंत्री था भी नहीं। फ़िलहाल केंद्र में अपने मंत्रिमंडल में 7 मंत्रियों को 10 महत्वपूर्ण मंत्रालय देने को वो नरेंद्र मोदी का कोई नया स्टाइल नहीं मानते। उनके मुताबिक़ जो चलन उन्होंने गुजरात में अपने शासन के दौरान शुरू किया था, उसी को बस आगे ले जा रहे हैं।
नौकरशाह से मंत्री बनना
मोदी जब प्रधानमंत्री बने, तो दिल्ली में गुजरात के अपने कई पसंदीदा अफ़सरों को लेकर आए। लेकिन जिन्हें मंत्री बनाया वो बिल्कुल अलग तरह के ब्यूरोक्रेट रहे हैं। उनमें से एक हैं, केजे अल्फ़ोन्स। वो केरल में पहले कलेक्टर थे, फिर विधायक बने और फिर राज्यसभा सांसद बने और मंत्री भी रहे।
2017 से 2019 के बीच वो मोदी सरकार में पर्यटन मंत्री रहे हैं। फ़िलहाल राजस्थान से राज्यसभा सांसद हैं।
नौकरशाह से मंत्री बनने के अपने अनुभव के बारे में बीबीसी से बात करते हुए वो कहते हैं, “एक ब्यूरोक्रेट का चुनाव जीत कर मंत्री या सांसद बनना थोड़ा मुश्किल है, अगर वो अपने काम में बहुत प्रभावशाली नहीं है। मैं ज़िला कलेक्टर से विधायक नौकरी छोड़ने के 32 दिन के अंदर ही बन गया था। वो मेरे कामकाज का सबसे चुनौती भरा वक़्त था। जिसमें मुझे मज़ा भी बहुत आया।”
लेकिन फिर बिना चुनाव लड़े राज्यसभा से आने और मंत्री बनने पर वो कहते हैं, “ब्यूरोक्रेट के अनुभव का मंत्री बनने पर बहुत फ़ायदा होता है। ऐसे लोगों को ये पहले से पता होता है कि सरकारी प्रक्रिया में क्या नहीं हो सकता। मंत्री के तौर पर ये पता होना बहुत ज़रूरी होता है कि क्या हो सकता है और क्या नहीं। क्या हो सकता है, इसकी जानकारी आम तौर पर सबको होती है। क्या नहीं हो सकता उसकी बारीकियाँ एक ब्यूरोक्रेट ही समझ पाता है।”
मोदी का काम करने का ‘सीईओ’ स्टाइल
नीरजा चौधरी, पिछले चार दशक से पत्रकारिता कर रही हैं। केजे अल्फ़ोन्स की बात का दूसरा पक्ष वो समझाती हैं।
वो कहती हैं, “मोदी की सरकार चलाने की शैली ‘सीईओ’ वाली है। प्रधानमंत्री मोदी को लगता है कि आइडिया अगर हमारे पास है, तो उनको लागू करने का काम तो वैसे भी ब्यूरोक्रेट्स ही करते हैं। ऐसे में ये बेहतर तरीक़ा है कि मंत्री भी उन्हीं को बना दो। ब्यूरोक्रेट्स दरअसल, ‘जेनरलिस्ट्स’ होते हैं। हर विभाग में काम करने का उनको अनुभव होता है। अलग-अलग विषयों की जानकारी होती है। मोदी फ़िलहाल इसी आईडिया पर काम कर रहे हैं।”
नीरजा सवाल-जवाब के अंदाज़ में आगे कहती हैं, “नेता जब मंत्री होते हैं, वो क्या करते हैं? मंत्रालय चलाने के लिए योजनाएँ बनाते हैं, जो राजनीतिक तौर पर उनके लिए लाभकारी हो। जिसे वो अपने होनहार, अनुभवी सचिवों के ज़रिए अमल में लाते हैं। नेता जब मंत्री बनते हैं, वो लोगों और प्रशासन के बीच की कड़ी होते हैं। राजनीतिक दिशा और दशा बताते हैं।”
“सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट का ही उदाहरण ले लीजिए। अगर उस विभाग के मंत्री अरुण जेटली होते, तो बताते कि अभी इसे लागू करने का सही वक़्त क्यों नहीं है? जनता को अभी क्या चाहिए? लेकिन उस विभाग के मंत्री फ़िलहाल ब्यूरोक्रेट हैं, तो जैसा कहा गया उसे अमल में लाने का काम शुरू हो गया। आज योजनाओं की दिशा और दशा पीएम और गृह मंत्रालय से तय किए जा रहे हैं। ऐसे में ज़रूरत तो केवल योजनाओं को लागू करने वाले की है। और इसलिए मंत्रिमंडल में ऐसे नौकरशाहों की संख्या बढ़ रही है।”
नीरजा कहती हैं कई पार्टियों की मिली जुली सरकार में ऐसे करना संभव नहीं होता था। सहयोगी पार्टियाँ इसका विरोध करती थी। इसलिए पहले की सरकार में ऐसा संभव नहीं था। लेकिन अब भारत में पूर्ण बहुमत की सरकार है।
भारत के पूर्व वित्त सचिव एससी गर्ग मंत्रालयों में नौकरशाहों की उपस्थिति को अच्छा मानते हैं। वो कहते हैं ऐसी परंपरा जवाहरलाल नेहरू के समय से चली आ रही है। नेहरू कैबिनेट में सीडी देशमुख वित्त मंत्री रहे थे, जो नौकरशाह थे। जनता सरकार में एचएम पटेल भी नौकरशाह थे। ख़ुद मनमोहन सिंह नौकरशाह से प्रधानमंत्री बने। भले ही वो प्रशासनिक सेवा के ना रहे हों।