भगीरथ की तपस्या से गंगा और ऋषि वशिष्ठ के तप से सरयू का हुआ अवतरण

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अयोध्या, 17 नवंबर (हि.स.)। हमारी अयोध्या अद्भुत, अजेय है, शास्वत और चिरंतन है। सरयू इसकी साक्षी है और माता सरयू स्वयं भी अयोध्या और भारत वर्ष के इतिहास की साक्षी हैं। माता सरयू तंत्र, मंत्र, वेदज्ञों, तत्वज्ञों का आहवान करती है और चेतना के गौरीशंकर युगों-युगों से खींचे चले आते हैं। श्रीरामचरित मानस में गोस्वामी तुलसी दास लिखते हैं कि अवध पुरी मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिशि बह सरयू पावनि। अयोध्या, श्रीराम और राममंदिर की चर्चा सरयू की पावन चर्चा के बिना अधूरी ही है। इसलिए सरयू की उत्पत्ति संबंधित वेद-पुराणोक्त विवरण को जान लेना भी आवश्यक है। अयोध्या का इतिहास हजारों वर्षों के उतार-चढ़ाव का है। जिसकी एकमात्र साक्षी माता सरयू हैं। सरयू नदी श्रीहरि विष्णु के अवतार श्रीराम की साक्षी है, उनकी लीलाओं की द्रष्टा है तो अंत में भगवान के महाप्रस्थान का मार्ग भी है। अयोध्या का इतिहास जितना प्राचीन है, उतना ही सरयू का।

पुराणों में वर्णन है कि बिना तप किए सृष्टी की रचना भगवान ब्रम्हा के लिए भी असंभव था। इसलिए उन्होंने भगवान विष्णु की उपासना किया, जिसके बाद विष्णु ने उनको दर्शन दिया। ब्रम्हा जी के तप को देखकर भगवान विष्णु की आंखों से आंसू निकलने लगे। जिसे ब्रम्हा जी ने अपने कमंडल में रोक लिया और मानस सरोवर का निर्माण किया। अयोध्या में वैवस्वत मनु नाम के राजा हुए जो भगवान श्रीराम के प्रथम पूर्वज थे। राजा मनु के पुत्र इक्ष्वाकु हुए जिन्होंने अपने गुरु वशिष्ठ से अयोध्या में सरोवर निर्माण की बात कही। जिसके बाद वशिष्ठ ऋषि ने अपने पिता ब्रम्हा से सरयू के अवतरण की प्रार्थना किया, ब्रम्हा जी ने अपने कमंडल से ही सरयू का अवतरण कराया।

एक अन्य जगह पर उल्लेख है कि तीर्थराज प्रयाग पाप धोते-धोते काले पड़ गए और उनका सफेद घोड़ा भी काला हो गया तो वह सरयू स्नान को आए। स्नान करके जब वह बाहर निकले तो उनका रंग और घोड़े का रंग पूर्ववत हो गया था। इसी समय महाराजा उज्जैन विक्रमादित्य आखेट करते अयोध्या तक आ गए थे उन्होंने तीर्थराज प्रयाग युवक को देखकर यह पूछा था कि आप कौन है?

राजन मैं तीर्थराज प्रयाग हूं। संसार की कोटि-कोटि जनता तीर्थराज प्रयाग में स्नान करके अपने पापों को भस्म करती है, जिससे मैं काला पड़ गया हूं। मैं पवित्र सरयू में स्नान करके अपने दिव्य स्वरुप को धारण करता हूं। प्रयाग विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डीपी दूबे बताते हैं कि ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को श्री सरयू जी से मान सरोवर से निकली थी ऐसा उल्लेख पुराणों में है।

यहां पर दो बातों का उल्लेख करना आवश्यक है। धर्मग्रंथों और पुराणों में बार-बार वशिष्ठ और विक्रमादित्य का उल्लेख आता है। भगवान श्रीराम की प्रथम पीढ़ी वैस्वत मनु से लेकर श्रीराम तक के लंबे कालखंड तक वशिष्ठ मौजूद हैं। ऐसे में अनुमान किया जाता है कि वशिष्ठ कोई एक व्यक्तिवाचक नाम नहीं रहा होगा बल्कि वह पदवाचक रहे होंगे। इसी प्रकार विक्रमादित्य भी पदवाचक ही हैं, जो राजाओं द्वारा सम्मानपूर्वक ग्रहण किया जाता था।

‘कौशल प्राचीन देश सरयू अथवा घाघरा के माध्यम से दो प्रांतों में विभक्त था। उत्तरीय भाग को उत्तर कौशल दक्षिणी भाग को बनौघ कहते थे। फिर इन दोनों के और दो भाग थे।’

(कनिंघम एनसिएंट ज्योग्राफी ऑफ इंडिया, पेज 408)

कोशल सरयू के किनारे धन-धान्यवान देश था, निविष्ट शब्द का प्रयोग करते हुए वाल्मीकि कहते हैं कि यह देश सरयू नदी के दोनों किनारों पर स्थित था।

कोसलो नाम विदित: स्फीतो जनपदो महान।

निविष्ट: सरयूतीरे प्रभुतधनधान्यवान।।

(वाल्मीकि रामायण, आरंभ)

महाराज भगीरथ की तपस्या से गंगा का अवतरण हुआ है तो ऋषि वशिष्ठ की तपस्या से सरयू का प्रादूर्भाव हुआ है। अवध क्षेत्र में यह नदी नेपाल से निकलकर बहराइच आती है, अल्मोड़ा में इसे सरयू कहते हैं। बहराइच जिले में तीस कोस बहकर यह कौड़ियला से अलग होते हुए घाघरा में मिल जाती है। इतिहास के जानकार कहते हैं कि इसे अंग्रेजों ने अपने समय में धारा बदल कर घाघरा में मिला दिया था। पुरानी धारा अब भी छोटी सरयू के नाम से बहराईच से एक मील हटकर बहती है।

कनिघंम लिखते हैं कि प्राचीन अयोध्या नगरी जैसा की रामायणी में लिखा है सरयू नदी के किनारे थी। कहा गया है कि उसका घेर 12 योजन या लगभग 100 मील था। किंतु हमें इसे 12 कोस या 24 मील ही पढ़ना चाहिए। संभव है कि उस प्राचीन नगर को उपवन सहित यह नाप किया गया हो। पश्चिम में गुप्तारघाट से लेकर पूर्व में रामघाट तक की दूरी सीधी छह मील है।

सरस्वती: सरयु: सिंधुरुर्मिभि: महामही रवसायंतु वक्षणी:।

देवी रायो मातर: सूदयित्नो घृतवतपयो मधुमन्नो अर्चत:।।

(ऋग्वेद मंडल, 10, 64, 9)

ऋग्वेद के इस मंडल में सरयू का आहवान सरस्वती और सिंधु के साथ किया गया है और उनसे प्रार्थना की गई है कि यजमान को तेज बल दे और मधुमन घृतवत जल दे।