पितृपक्ष विशेष : जानिये आखिर क्यों सजीव मनुष्यों के लिए करना ज़रूरी है मृत लोगों का श्राद्ध कर्म

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प‌ितृपक्ष यानी श्राद्ध का पक्ष शुरु हो चुका है। हमारी भारतीय सभ्यता में हिंदू धार्मिक मान्यताओं में श्राद्ध, यानी पितृ पक्ष का बहुत ही अहम योगदान है। प्रति वर्ष आने वाले इस समय में सभी हिंदू धर्म के अनुयायी भारतीय अपने पित्रों के प्रति श्रद्धा, आभार और स्मरण व्यक्त करने तथा उनकी मोक्ष प्राप्ति के लिए हवन-पूजन, तर्पण व दान-पुण्य आदि करते हैं।

सभी हिंदू परिवार श्राद्ध पक्ष के प्रति बहुत ही श्रद्धा भाव रखते हैं। किसी भी पूजन या आस्था की मज़बूती उस समय और बढ़ जाती है, जब उससे जुड़े विविध पक्षों के बारे में हम गहराई से जानते हों, उसके कारण जानते हों, उसके नियम  आदि जानते हों। आइये आज जानते हैं उन सभी पहलुओं को जो श्राद्ध कर्म से कहीं ना खिन जुड़े हुए हैं।

पितृ पक्ष अथवा श्राद्ध कब होते हैं ?

हिंदू कैलेंडर के अनुसार उत्तर भारतीय पंचांग में पितृ पक्ष, यानी श्राद्ध भाद्रपद में पूर्ण चन्द्रमा के दिन या पूरनमासी के अगले दिन से  शुरू होता है। 12 महीनों के बीच में छठे महीने, यानी भाद्र पक्ष की पूर्णिमा से (यानी आखिरी दिन से) 7वें माह अश्विन के पहले पांच दिनों में यह पितृ पक्ष मनाया जाता है। सूर्य भी अपनी प्रथम राशि मेष से गोचर करता हुआ जब छठी राशि कन्या में एक महीने के लिए भ्रमण करता है, तब ही इस सोलह दिन का पितृ पक्ष मनाया जाता है। उत्तर और दक्षिणी भारतीय लोग श्राद्ध की विधि लगभग समान दिनों में ही करते हैं। 

श्राद्ध का प्रचलन कब शुरु हुआ ?

पंडित.नीरज रतूडी (शिक्षा शास्त्री) ऐसा बताते हैं कि प्राचीन काल में ब्रह्माजी के पुत्र हुए महर्षि अत्रि । उन्हीं के वंश में भगवान दत्तात्रेयजी का आविर्भाव हुआ। दत्तात्रेयजी के पुत्र हुए महर्षि निमि और निमि के एक पुत्र हुआ श्रीमान् । श्रीमान् बहुत सुन्दर था । कठोर तपस्या के बाद उसकी मृत्यु होने पर महर्षि निमि को पुत्र शोक के कारण बहुत दु:ख हुआ । अपने पुत्र की उन्होंने शास्त्रविधि के अनुसार अशौच (सूतक) निवारण की सारी क्रियाएं कीं । फिर चतुर्दशी के दिन उन्होंने श्राद्ध में दी जाने वाली सारी वस्तुएं एकत्रित कीं ।

अमावस्या को जागने पर भी उनका मन पुत्र शोक से बहुत व्यथित था । परन्तु उन्होंने अपना मन शोक से हटाया और पुत्र का श्राद्ध करने का विचार किया । उनके पुत्र को जो-जो भोज्य पदार्थ प्रिय थे और शास्त्रों में वर्णित पदार्थों से उन्होंने भोजन तैयार किया ।

महर्षि ने सात ब्राह्मणों को बुलाकर उनकी पूजा-प्रदक्षिणा कर उन्हें कुशासन पर बिठाया । फिर उन सातों को एक ही साथ अलोना सावां परोसा । इसके बाद ब्राह्मणों के पैरों के नीचे आसनों पर कुश बिछा दिये औरअपने सामने भी कुश बिछाकर पूरी सावधानी और पवित्रता से अपने पुत्र का नाम और गोत्र का उच्चारण करके कुशों पर पिण्डदान किया। श्राद्ध करने के बाद भी उन्हें बहुत संताप हो रहा था कि वेद में पिता-पितामह आदि के श्राद्ध का विधान है, मैंने पुत्र के निमित्त किया है । मुनियों ने जो कार्य पहले कभी नहीं किया वह मैंने क्यों कर डाला ?

उन्होंने अपने वंश के प्रवर्तक महर्षि अत्रि का ध्यान किया तो महर्षि अत्रि वहां आ पहुंचे । उन्होंने सान्त्वना देते हुए कहा—‘डरो मत ! तुमने ब्रह्माजी द्वारा श्राद्ध विधि का जो उपदेश किया गया है, उसी के अनुसार श्राद्ध किया है ।’ ब्रह्माजी के उत्पन्न किये हुए कुछ देवता ही पितरों के नाम से प्रसिद्ध हैं; उन्हें ‘उष्णप’ कहते हैं । श्राद्ध में उनकी पूजा करने से श्राद्धकर्ता के पिता-पितामह आदि पितरों का नरक से उद्धार हो जाता है।

सबसे पहले किसने किया था श्राद्ध ?

सबसे पहले निमि ने श्राद्ध का आरम्भ किया । उसके बाद सभी महर्षि उनकी देखादेखी शास्त्र विधि के अनुसार पितृयज्ञ (श्राद्ध) करने लगे । ऋषि पिण्डदान करने के बाद तीर्थ के जल से पितरों का तर्पण भी करते थे । धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में देवताओं और पितरों को अन्न देने लगे ।

बाद सभी महर्षि उनकी देखादेखी शास्त्र विधि के अनुसार पितृयज्ञ (श्राद्ध) करने लगे । ऋषि पिण्डदान करने के बाद तीर्थ के जल से पितरों का तर्पण भी करते थे । धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में देवताओं और पितरों को अन्न देने लगे ।

क्यों लगाया जाता है श्राद्ध में सर्वप्रथम अग्नि का भोग ?

लगातार श्राद्ध में भोजन करते-करते देवता और पितर पूरी तरह से तृप्त हो गये । अब वे उस अन्न को पचाने का प्रयत्न करने लगे । अजीर्ण (indigestion) से उन्हें बहुत कष्ट होने लगा । सोम देवता को साथ लेकर देवता और पितर ब्रह्माजी के पास जाकर बोले—‘निरन्तर श्राद्ध का अन्न खाते-खाते हमें अजीर्ण हो गया है, इससे हमें बहुत कष्ट हो रहा है, हमें कष्ट से मुक्ति का उपाय बताइए।’

ब्रह्माजी ने अग्निदेव से कोई उपाय बताने को कहा । अग्निदेव ने कहा—‘देवताओ और पितरो ! अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन करेंगे । मेरे साथ रहने से आप लोगों का अजीर्ण दूर हो जाएगा ।’ यह सुनकर सबकी चिन्ता मिट गयी; इसीलिए श्राद्ध में पहले अग्नि का भाग दिया जाता है । श्राद्ध में अग्नि का भोग लगाने के बाद जो पितरों के लिए पिण्डदान किया जाता है, उसे ब्रह्मराक्षस दूषित नहीं करते हैं । श्राद्ध में अग्निदेव को उपस्थित देखकर राक्षस वहां से भाग जाते हैं ।

सबसे पहले पिता को, उनके बाद पितामह को और उनके बाद प्रपितामह को पिण्ड देना चाहिए—यही श्राद्ध की विधि है । प्रत्येक पिण्ड देते समय एकाग्रचित्त होकर गायत्री-मन्त्र का जप और ‘सोमाय पितृमते स्वाहा’ का उच्चारण करना चाहिए ।

इस प्रकार मरे हुए मनुष्य अपने वंशजों द्वारा पिण्डदान पाकर प्रेतत्व के कष्ट से छुटकारा पा जाते हैं। इस प्रकार पितरों को खुश करने से सुन्दर-सुन्दर वस्त्र, भवन और सुख साधन श्राद्ध कर्ता को स्वयं ही सुलभ हो जाते हैं। पितरों की भक्ति से मनुष्य को पुष्टि, आयु, संतति, सौभाग्य, समृद्धि, कामनापूर्ति, वाक् सिद्धि, विद्या और सभी सुखों की प्राप्ति होती है ।

क्या पितृ पक्ष के विधि-विधान महिलाएं भी कर सकती हैं? 

हम एक ऐसी संस्कृति का हिस्सा है, जो पुरुष प्रधान मानी जाती है, इसलिए नियमानुसार घर के बड़े पुरुष यानी हेड ऑफ द फैमिली को ही श्राद्ध करना चाहिए। पुरुष पूर्वजों का नाम जोड़कर वंश वृद्धि करता है और विवाह के बाद स्त्री उस पुरुष के वंश की वृद्धि-कारक होती है। जिस वंश की वृद्धि में स्त्री भागीदार होती है, वह उसी वंश का नाम वह अपने नाम से जोड़ती है, इसलिए रीति के अनुसार घर का प्रधान पुरुष ही श्राद्ध करता है, परंतु अगर घर में पुरुष नहीं है तो घर की बड़ी महिला, यानी परिवार की मुखिया भी किसी ज्ञानी पंडित द्वारा श्राद्ध करवा सकती है।

श्राद्ध की पूजा घर पर ही करनी चाहिए या किसी मंदिर अथवा तीर्थ का विशेष महत्व है

श्राद्ध पूजा घर के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में बैठ कर दक्षिण-पश्चिमी दिशा की ओर मुख करके भी की जा सकती है या काशी, गया, बोधगया, हरिद्वार,प्रयागराज आदि स्थल पर जाकर भी कर सकते है। यह यथाशक्ति अनुसार ही करने का विधान है। मतलब ये कि इंसान की जितनी सामर्थ्य है, उसी के अनुसार अपने पूर्वजों को मान दिया जाता है। इसमें किसी प्रकार के आडंबर या दिखावे की कोई जरूरत नहीं होती है। रामायण में भी अयोध्या कांड 103 सर्ग 30 वे श्लोक में श्रीराम ने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध वनवास के समय यथाशक्ति ही किया था।