देहरादून। यूं तो सियासत में एक पार्टी से दूसरी पार्टी का सफर कोई नई बात नहीं, मगर इसमें अकसर एडजस्टमेंट में दिक्कत आती ही है। एक पार्टी की रीति-नीति और विचारधारा दूसरी पार्टी से हमेशा अलग होती है, लिहाजा तालमेल बिठाना आसान भी नहीं। इसकी बानगी इन दिनों उत्तराखंड में साफ-साफ नजर आ रही है। पिछले छह सालों के दौरान कांग्रेस से दामन झटक भाजपा में शामिल होने वाले तमाम नेता खुद को असहज पा रहे हैं। दरअसल, भाजपा एक अनुशासित पार्टी की छवि रखती है और इसका कॉडर हमेशा अलग की संस्कृति वाला रहा है। कांग्रेस का कल्चर बिल्कुल जुदा है। यही वजह है कि सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत, कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन, उमेश शर्मा काउ जैसे वरिष्ठ नेता गाहे-बगाहे कुछ ऐसा कर जाते हैं, जो सबकी नजरों में आ जाता है और मीडिया में चर्चा की वजह बनता है।
उत्तराखंड में वर्ष 2014 में कांग्रेस के विखंडन और भाजपा के मजबूत होने का सिलसिला शुरू हुआ। वर्ष 2013 की भयावह केदारनाथ आपदा के बाद वर्ष 2014 की शुरुआत में कांग्रेस आलाकमान ने विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री पद से हटा हरीश रावत को कुर्सी सौंपी। सतपाल महाराज को यह नागवार गुजरा और उन्होंने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस को अलविदा कह भाजपा का दामन थाम लिया। विजय बहुगुणा और उनके खेमे को तो इससे झटका लगना ही था। इसका नतीजा सामने आया मार्च 2016 में, जब विधानसभा के बजट सत्र के दौरान कांग्रेस में बड़ी टूट हो गई। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा, तत्कालीन कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत समेत नौ कांग्रेस विधायकों ने कांग्रेस छोड़ भाजपा ज्वाइन कर ली। हरीश रावत तब सरकार तो बचा ले गए, मगर बहुमत परीक्षण के दौरान एक और विधायक ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया।
इस बड़ी टूट के बाद रही-सही कसर पूरी हो गई वर्ष 2017 के राज्य विधानसभा चुनाव के मौके पर। तब तत्कालीन कैबिनेट मंत्री और कांग्रेस संगठन के सूबाई मुखिया रहे यशपाल आर्य भी भाजपा में शामिल हो गए। इसका असर यह हुआ कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई। भाजपा एतिहासिक बहुमत के साथ सत्ता में आई। 70 सदस्यों वाली विधानसभा में भाजपा के 57 विधायक पहुंचे और कांग्रेस महज 11 पर ही सिमट गई। सिटिंग सीएम हरीश रावत दो-दो सीटों पर चुनाव हार गए। महत्वपूर्ण बात यह रही कि भाजपा ने कमिटमेंट पूरा किया और कांग्रेस छोड़ पार्टी में आए सभी नेताओं या उनके स्वजनों को टिकट दिया। इनमें से अधिकांश चुनाव जीत कर भाजपा विधायक के रूप में विधानसभा पहुंचे। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने चुनाव नहीं लड़ा, उनके पुत्र सौरभ मैदान में उतरे और चुनाव जीत विधायक बने। यशपाल आर्य के साथ ही उनके पुत्र संजीव आर्य भी विधायक बने।
18 मार्च 2017 को त्रिवेंद्र सिंह रावत ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। उनके साथ नौ अन्य मंत्रियों को भी शपथ दिलाई गई। इनमें कांग्रेस पृष्ठभूमि के पांच विधायक मंत्री बनाए गए। इनमें सतपाल महाराज, यशपाल आर्य, हरक सिंह रावत, सुबोध उनियाल को कैबिनेट मंत्री और रेखा आर्य को स्वतंत्र प्रभार के साथ राज्य मंत्री बनाया गया। दिलचस्प बात यह कि मंत्रिमंडल में मुख्यमंत्री समेत बाकी चार सदस्य भाजपा पृष्ठभूमि के रहे। पिछले साल जून में वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री प्रकाश पंत का असामयिक निधन हो गया। इसके बाद पिछले डेढ़ साल से नौ सदस्यीय मंत्रिमंडल में पांच सदस्य कांग्रेस पृष्ठभूमि के हैं। कई बार लगा कि अब मुख्यमंत्री मंत्रिमंडल में खाली तीन स्थानों को भरने जा रहे हैं। स्वयं मुख्यमंत्री ने भी कई दफा इसके संकेत दिए, मगर अब तक मंत्रिमंडल विस्तार हुआ नहीं। अब अगले विधानसभा चुनाव में सवा साल बाकी रहते इसकी संभावना भी काफी कम होती जा रही है।
अब बात करें कांग्रेस पृष्ठभूमि के उन नेताओं की, जो खुद को भाजपा में असहज महसूस कर रहे हैं और शायद इसी कारण अकसर भाजपा के लिए सिरदर्द का कारण भी बनते रहे हैं। शुरुआत कैबिनेट मंत्रियों से, पहले जिक्र सतपाल महाराज का। महाराज ने हाल ही में सवाल उठाया कि मंत्रियों को क्यों नहीं अपने विभागीय सचिवों की गोपनीय प्रविष्टी, यानी सीआर दर्ज करने का हक दिया जा रहा है। हालांकि अन्य राज्यों की तर्ज पर उत्तराखंड में भी मंत्रियों को यह अधिकार है, मगर एक सचिव के पास कई मंत्रियों के महकमे होने के कारण व्यवहारिक दिक्कत होती है कि सचिव की सीआर कौन मंत्री भरेगा। लिहाजा मुख्यमंत्री ही यह जिम्मेदारी निभाते हैं। कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत की नाराजगी तो कई दिनों तक सुर्खियों में रही। उनके पास श्रम विभाग भी है और इसके अंतर्गत आने वाले सन्निर्माण कर्मकार बोर्ड के अध्यक्ष का पद भी उनके पास था। सरकार ने यह पद उनसे हटा लिया, साथ ही उनकी नजीदीकी दमयंती रावत को भी सचिव पद से हटाते हुए बोर्ड का पुर्नगठन कर दिया। अब उनके कार्यकाल के दौरान के साढ़े तीन साल का स्पेशल ऑडिट का भी फैसला लिया गया है।
राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) रेखा आर्य और उनके विभाग महिला सशक्तीकरण एवं बाल विकास के निदेशक वी षणमुगम के बीच खटास इतनी ज्यादा बढ़ी कि मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्य सचिव ओमप्रकाश को जांच के निर्देश देने पड़े। दरअसल, विभाग में मानव संसाधन की आपूर्ति के लिए आउटसोर्सिंग एजेंसी के चयन को लेकर मंत्री और निदेशक के बीच विवाद हो गया था। अब कांग्रेस पृष्ठभूमि के विधायकों की चर्चा, सबसे पहले हरिद्वार जिले की खानपुर सीट के विधायक कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन की। अकसर विवादों के कारण चर्चा बटोरने वाले चैंपियन को पिछले साल भाजपा ने छह वर्षों के लिए पार्टी से निष्कासित किया, मगर फिर एक साल में ही उनकी घर वापसी हो गई। यह बात दीगर है विवादों से चैंपियन का नाता अब भी नहीं टूटा। एक कार्यकर्त्ता के साथ उनकी बातचीत का ऑडियो वायरल हुआ तो संगठन को सख्त रुख अख्तियार करना पडा। अब चैंपियन ने इस मामले में क्षमायाचना कर विवाद खत्म करने की कोशिश की है। अब इस फेहरिस्त में देहरादून की रायपुर सीट के विधायक उमेश शर्मा काउ का नाम भी जुड़ गया है। हालांकि उनका मामला कुछ दूसरी तरह का है। उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष बंशीधर भगत को पत्र लिखकर पार्टी की एक महिला नेता पर पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को अपशब्द कहने का आरोप लगाया।