संयुक्त परिवार से मानसिक मजबूती : सेंगर परिवार

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12HREG14 संयुक्त परिवार से मानसिक मजबूती : सेंगर परिवार

–विश्व परिवार दिवस (15 मई) के उपलक्ष्य में सेंगर परिवार से बातचीत

लखनऊ, 12 मई (हि.स.)। इस समय भारतीय समाज में दो तरह के परिवारों की अवधारणा है। एक संयुक्त परिवार दूसरा एकल परिवार। हर एक पारिवारिक संरचना में अपनी-अपनी अच्छाईयां और खामियां दोनों हो सकती है। लेकिन हां, बातचीत के आधार पर यह जरूर कह सकते हैं कि संयुक्त परिवार में मानसिक सुरक्षा ज्यादा प्रबल होती है। हमें अपने अकेलेपन का अहसास नहीं होता है। किसी मुसीबत के समय परिवार का साथ दु:ख को कम कर देता है।

इसी दोनों तरह की पारिवारिक संरचना के सवाल को लेकर जब हिन्दुस्थान संवाददाता शैलेन्द्र मिश्रा ने लखनऊ के अलीगंज क्षेत्र में रहने वाले सेंगर परिवार से मुलाकात की तो, उन लोगों ने इस सम्बंध में अपना अनुभव राय दोनो जाहिर की। विजय सेंगर और उनकी पत्नी डॉ. अपर्णा सेंगर दोनों ही उच्च शिक्षित हैं। आर्थिक रूप से समृद्ध हैं। दोनों पति-पत्नी नौकरी करते हैं। बताया कि हमारा दो भाईयों का एक संयुक्त परिवार है, जिसमे भाई और उनकी पत्नी, पिताजी और दोनों के बच्चे एक साथ रहते हैं। वे लोग संयुक्त परिवार के पक्षधर हैं।

आज के दौर में अमूमन देखा गया है कि पत्नियां अपने पति, बच्चे को ही पूरा परिवार मानकर रहना पसंद करती है। लेकिन डॉ. अर्पणा सेंगर, जो शहर के एक प्रतिष्ठित स्नातक बालिका महाविद्यालय में शिक्षण कार्य कर रही हैं और विवाह के बाद एकल परिवार से संयुक्त परिवार से आई। इस धारणा के बिल्कुल विपरीत है। वह कहती हैं संयुक्त परिवार में मानसिक मजबूती बहुत रहती है। कभी अकेलेपन का अहसास ही नहीं रहता है। बताती हैं जब हम घर से बाहर होते हैं, तो बच्चे की चिंता ही नहीं रहती है। मालूम है कि स्कूल से आने पर उसकी दादी ने कपड़े बदलवा दिए होंगे और खाना दे दिया होगा। बच्चा घर में बिल्कुल अच्छे से होगा। बताया कि दो साल पहले पति को कोरोना हो गया था, वह अस्पताल में भर्ती हो गए थे, उस विपदा की घड़ी में परिवार में सभी लोगों का भरपूर साथ मिला। वह संकट का समय भी आसानी से कट गया। हम अकेले होते तो क्या करते, आज यह सोच कर ही डर लगता है। वह कहती है किसी भी समय आपका परिवार ही सबसे पहले साथ देता है, रिश्तेदार व दोस्त-यार तो बाद में आते हैं। एक प्रश्न के उत्तर में डॉ. अपर्णा ने कहा कि हां, संयुक्त परिवार के जिम्मेदारियां तो बढ़ जाती है, कभी अपने मन का नहीं हो पाता है, लेकिन सब बातें कुछ समय के लिए होती हैं और आपसी समझ से सब निबट भी जाती है।

समाजशास्त्री होने के नाते उन्होंने एक बात और बताई कि समाज के दो सिद्धांत होता है, जिसमें कहा जाता है कि पुरानी बातेें फिर से लौटती है और दूसरा यह कि समाज एक लाईन में चलता है। जिसमें नई चीजें जुड़ती रहती है, तो संयुक्त परिवार की अपनी पुरानी परम्परा लौट भी सकती है। हालांकि वह भी कहती है कि वर्तमान में संयुक्त परिवार का मॉडल बदल गया है। भले ही एक चूल्हे में खाना न बने, लेकिन वे सब एक ही मकान की अलग-अलग स्टोर में रहते हैं या पास-पास अलग-अलग फ्लैट में रहते हैं। वर्तमान में यह भी संयुक्त परिवार एक मॉडल है।

डॉ. अर्पणा के पति विजय सेंगर भी पत्नी की बातों को जोड़ते हुए आगे कहते हैं कि एक संयुक्त परिवार में बच्चे को अच्छे संस्कार भी मिलते हैं। बच्चे एकल परिवार में चाचा-चाची, ताऊ-ताई के रिश्ते को जानते ही नहीं है। दादा-बाबा को मेहमान समझते हैं, लेकिन यह संयुक्त परिवार में ही रहकर सीखा जा सकता है। भाईयों के बेटों में कोई अपने-पराए की बात नहीं होती है, लेकिन एकल परिवारों में उन्हे ’कजन’ कहा जाता है। वह बताते हैं हम लोग जब घर से बाहर होते हैं तो घर के बुजुर्ग ही बच्चों को अच्छी बातें सिखाते हैं। अकेले रहने पर वह मोबाईल या टीवी ही देखते मिलेंगे। श्री सेंगर बताते हैं कि संयुक्त परिवार में एक मानसिक सुरक्षा होती है, हां कुछ जिम्मेदारियां जरूर बढ़ जाती है, लेकिन वो कोई बोझ नहीं है। बताते हैं अगर घर पर हम नहीं भी तो कोई चिंता की बात नहीं है। पूरा भरोसा है कि घर में सब ठीक ही होगा। पत्नी-बच्चे को देखने के लिए परिवार में अन्य लोग भी हैं।