सच लिखते हैं ये अब एक भ्रम है….
जंजीरों में पड़ी क़लम है…. फिर भी कहते इसमें कितना है दम….
बिना भय के हुआ करती थी….
मजबूरों की आवाज़ बना करती थी….
उलझी गुत्थी को सुलझाती थी….
कर्तव्य पथ पर निर्भीक चलती जाती थी….
अब डाकिया का कर्म में निभाती है….
खुद की शक्ति को भूल अब कुछ ही का हुकुम बजाती है….
बेबस बेदम कौड़ी में बिकती जाती है….
कदम कदम पर कलम दम तोड़ती नज़र आती है….
फिर भी कहते इसमें कितना है दम….
गौरव यादव
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार)