यूपी में होलिका दहन का नया ट्रेंड: प्रह्लाद की प्रतिमा संग पुतला दहन, लकड़ी की बचत

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होली का त्यौहार भारत में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है और इस साल, होली 14 मार्च को मनाई जाएगी। वहीं, 13 मार्च की रात को होलिका दहन का आयोजन भी होगा। उत्तर प्रदेश में होलिका दहन की परंपरा में बदलाव आ रहे हैं। यहां अब होलिका के पुतले भी बनाए जा रहे हैं, जिनकी ऊंचाई 5 से 15 फीट तक है, और ये पुतले दिल्ली के दशहरे के रावण-मेघनाद के पुतलों की तरह जलाए जाएंगे। झांसी, कानपुर और वाराणसी जैसे शहरों में यह नया ट्रेंड तेजी से फैल रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि ये बदलाव क्यों आए हैं और इस परंपरा की शुरुआत कब हुई।

कानपुर में होलिका और प्रह्लाद के पुतलों की लगभग 20 छोटी-छोटी दुकानें हैं, जहां से लोग होलिका के पुतले खरीदने आते हैं। कारीगर बबलू, ऋषि, और मोनू जैसे लोग बांस, कपड़ा और कागज से पुतले बना रहे हैं। इन पुतलों का मूल्य निश्चित रूप से ग्राहकों को आकर्षित करता है। छोटे पुतलों की कीमत 1500 रुपए और बड़े पुतलों की कीमत 4000 रुपए तक होती है। रिपोर्ट के अनुसार, 6 दिन में एक पुतला तैयार होने में लगभग 2000 रुपए का मटेरियल लगता है। इसकी प्रक्रिया और बढ़ती मांग के चलते इस बार ढाई हजार पुतले अब तक बिक चुके हैं।

होलिका दहन की परंपरा झांसी में बहुत पुरानी है, लेकिन अब यह बांस और कागज के पुतलों की ओर बढ़ रही है। उदाहरण के लिए, शिवाला में मानू सिंह बताते हैं कि पहले मिट्टी का पुतला बनाया जाता था, जिसमें काफी खर्च आता था, लेकिन अब बांस के पुतले का चलन बढ़ गया है। इसी प्रकार, वाराणसी में भी होलिका के साथ ही हिरण्यकश्यप के पुतले का प्रचलन बढ़ रहा है। काशी में 2468 स्थानों पर होलिका दहन किया जाएगा, जहां भक्त प्रह्लाद को भी शामिल किया गया है।

वाराणसी में मूर्तिकारों ने 5 से 15 फीट की मूर्तियों की मांग बढ़ती देखी है। यहां के मूर्तिकार सोमेश दादा बताते हैं कि पहले 5 फीट की मूर्तियों की मांग अधिक होती थी, लेकिन अब बड़े आकार की मूर्तियों की भी तैयारी की जा रही है। इन मूर्तियों को बनाने में दो महीने पहले से ही काम शुरू हो जाता है, और इस दौरान मिट्टी का उपयोग खास तौर पर गंगा के किनारे से लाया जाता है।

अंत में, झांसी में होलिका दहन की परंपरा को देखने के लिए कई स्थानों पर विशेष तैयारी की गई है। यहां 6 स्थानों पर होलिका के पुतले जलाने की व्यवस्था की गई है। मूर्तिकार चंदन का कहना है कि धीरे-धीरे इस परंपरा में बदलाव आ रहा है। शहर की सबसे पुरानी होली घासमंडी में जलती है, जहां 160 सालों से यह परंपरा बनी हुई है। इन सभी बदलावों को देखकर यह कहा जा सकता है कि होलिका दहन की परंपरा में नया रंग और रुख देखने को मिल रहा है, जो सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव का प्रतीक है।