पंजाब के तरनतारन में 32 वर्ष पहले हुई एक फर्जी एनकाउंटर की घटना ने अब एक नए मोड़ लिया है। मोहाली स्थित सीबीआई की विशेष अदालत ने दो पूर्व पुलिसकर्मियों को इस मामले में हत्या और अन्य गंभीर आरोपों में दोषी करार दिया है। दोषियों में उस समय तरनतारन के पट्टी थाने में तैनात पुलिस अधिकारी सीता राम (80) और एसएचओ राज पाल (57) शामिल हैं। अदालत ने सीता राम को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302, 201 और 218 के तहत दोषी ठहराया, वहीं राज पाल को धारा 201 और 120-बी के तहत सजा दी जाएगी। इस मामले में अन्य पांच आरोपियों को संदेह का लाभ देकर बरी कर दिया गया।
इस केस का घटनाक्रम कुछ इस प्रकार है कि 30 जनवरी 1993 को तरनतारन के गलीलीपुर निवासी गुरदेव सिंह को पुलिस ने उसके घर से उठा लिया था। इसके बाद 5 फरवरी को सुखवंत सिंह को भी घर से उठा लिया गया। दोनों युवकों को 6 फरवरी 1993 को फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया, और पुलिस ने उनके शवों का अंतिम संस्कार लावारिस हालत में किया। इस पूरे समय में परिवार को अपनी संतान के चेहरे तक देखने का मौका नहीं मिला। पुलिस ने इन युवकों पर गंभीर अपराधों का आरोप लगाया, लेकिन अदालत में यह आरोप साबित नहीं हो सका।
इस मामले की जांच की प्रक्रिया में सीबीआई ने 1995 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जांच शुरू की थी। प्रारंभिक जांच में गवाहों के बयान दर्ज किए गए और eventually 2000 में सीबीआई ने तरनतारन के 11 पुलिस अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की। हालाँकि, 2001 में आरोपियों पर आरोप तय तो हुए, लेकिन आवश्यक मंजूरी के अभाव में मामला वर्षों तक लटका रहा और इस पर सुनवाई में कई बार देरी होती रही। इस दौरान, सभी आवश्यक सबूत न्यायिक फाइल से गायब हो गए, जिससे मामले की स्थिति और भी जटिल हो गई।
वर्ष 2023 में, अदालत ने 30 साल बाद मामले के पहले सरकारी गवाह का बयान दर्ज किया। पीड़ित का परिवार, जो वर्षों से न्याय की आस में था, अब हाईकोर्ट में अपील करने की योजना बना रहा है ताकि बरी किए गए आरोपियों को सजा दिलाने के लिए ठोस कार्रवाई की जा सके। सुखवंत सिंह का बेटा राजबीर, जो इस निराशाजनक घटना के समय चार साल का था, ने बताया कि इस घटना ने उनके परिवार की आर्थिक स्थिति को बिगाड़ दिया। उनके लिए गुरु आसरा ट्रस्ट ने सहारा दिया, जिसके बाद उन्होंने खुद पुलिस में भर्ती होकर परिवार का सहारा बनने का निर्णय लिया।
इस मामले ने न केवल पीड़ित परिवार को बल्कि समाज के बड़े हिस्से को भी इस बात का एहसास दिलाया है कि न्याय की प्रक्रिया कई बार कितनी धीमी और जटिल हो सकती है। यह घटनाएँ न केवल एक परिवार की कहानी हैं, बल्कि यह उस प्रणाली के खिलाफ भी एक सवाल उठाती हैं, जो अपने कर्तव्यों को निभाने में लेटलतीफी करती है। अदालत का यह निर्णय न केवल एक न्यायिक जीत है बल्कि यह उम्मीद भी जगाता है कि सही समय पर उचित न्याय दिया जा सकेगा।