फ़िल्म समीक्षा: मी रक़सम

Share
शैली : ड्रामा / सामाजिक
भाषा : हिंदी
रिलीज़ : २० अगस्त २०२०
प्लेटफार्म/ओटीटी : ज़ी ५
आयु उपयुक्तता : १३+
अवधि : १ घंटा ३५ मिनट
निर्देशन : ३. ५ /५
संवाद : ३.५ /५
पटकथा : ३.५ /५
संगीत : ३ /५
_____________________
कुल मिला के : ३.५ /५

मी रक़सम (एक फ़ारसी शब्द जिसका अर्थ है मैं नाचता/नाचती हूं) बाबा आज़मी द्वारा निर्देशित एवं शबाना आज़मी प्रोडक्शन की फ़िल्म है, जो जाति, धर्म और भेदभाव के नाम पर समाज और समुदाय की रूढ़िवादी विचारधाराओं को तोड़ती है। यह निस्संदेह वर्ष 2020 की बेहद सुंदर, सोची समझी और सुलझी हुई फिल्मों में से एक है जो फिर से साबित करती है कि आज कल के डिजिटल रिलीज के समय में अच्छा कंटेंट निस्संदेह सराहा और पहचाना जाने वाला है। यह फिल्म कुछ शानदार सबक भी दे जाती है, जैसे कि “कला कलाकार से संबंधित है और किसी विशेष धर्म या समुदाय से नहीं” और “आमतौर पर कलाकार कला का चयन करता है लेकिन कभी-कभी कला भी कलाकार को चुनती है”

फिल्म की कहानी एक छोटे से गाँव मिज़वान (आजमगढ़) की एक मुस्लिम लड़की मरियम की है जो भरतनाट्यम नृत्य शैली पर मोहित है और अपनी माँ के अचानक निधन के बाद, अपने पिता सलीम की मदद और समर्थन के साथ, खुद को फिर से खोजने के लिए भरतनाट्यम सीखती है| उसके पिता, जोकि पेशे से एक अल्प आय वाले दर्जी है, बिना शर्त उसका समर्थन करते है| इसके लिए उन्हें अपने ही परिवार और समुदाय के खिलाफ होना पड़ता है| यहाँ तक की उनके पूर्ण बहिष्कार का सामना भी करना पड़ता है | इस यात्रा में, मरियम को अपने नृत्य शिक्षक और उसके दोस्तों / चचेरे भाइ बहनों का भी समर्थन मिलता है। वही दूसरी तरफ दोनों समुदायों के कुछ ऊँचे ओहदे पर विराजमान अन्य तत्व भी हैं जो मरियम के नृत्य सीखने के निर्णय से परेशान हैं और लगातार उन पर दबाव बनाकर उनके मार्ग में बाधाएं डालने का प्रयास करते हैं। फिल्म इस बात पर भी प्रकाश डालती है कि जो लोग इस भेदभाव को भड़काते हैं वे ही इससे लाभान्वित होते हैं। मरियम की राह में क्या-क्या चुनौतियाँ आएंगी? क्या सभी चुनौतियों के बावजूद मरियम भरतनाट्यम सीख सकेगी ? बाकी की फिल्म यही कहानी बताती है | फिल्म अपनी धीमी गति की वजह से लगभग 1.35 घंटे की अवधि में भी थोड़ी लंबी लगती है और दर्शक काफी हद तक ये पहले ही अंदाज़ा लगा लेते हैं कि आगे क्या होने वाला है | बस यही फिल्म का थोड़ा कमज़ोर पक्ष है जोकि कलाकारों के बेहतरीन अभिनय से काफी हद तक ढक जाता है |

अभिनय के हिसाब से फिल्म का बेहद महत्वपूर्ण स्तम्भ है, एक मज़बूत और मजबूर पिता सलीम के रूप में दानिश हुसैन का शानदार अभिनय, जो अपने ईमानदार और सरल प्रदर्शन से दिल जीत लेते हैं | यहां तक कि कम संवादों के बावजूद वह पूरी तरह अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं । मरियम के रूप में अदिति सुबेदी अपने दिल छू लेने वाले मासूम प्रदर्शन और नृत्य में खरी उतरती हैं । हाशिम सेठ के रूप में नसीरुद्दीन शाह एक छोटे रोल के बावजूद अपने बेहतरीन अभिनय से ये जता देते है कि क्यों उन्हें सबसे बेहतरीन कलाकारों में गिना जाता है | राकेश चतुर्वेदी ओम ने भी अपने किरदार को अच्छे से निभाया हैं।

श्रद्धा कौल खाला के किरदार में बेहद प्रभावित करती है | किरदार की मांग के हिसाब से उनका अभिनय बेहद संतुलित रहा है और वो कहीं ओवर नहीं लगती हैं | फारुख जाफ़र बेहद अनुभवी हैं और गुलाबो सिताबो के विपरीत, उनकी यहाँ बहुत छोटी भूमिका है, लेकिन वह हमेशा की तरह प्रभावशाली हैं। सुदीप्ता सिंह डांस टीचर के रूप में इला अरुण की तरह लगती हैं और वह शानदार हैं। बाकी कलाकार अच्छे हैं।

मी रअक़्सम जैसी फिल्में समाज को आइना दिखाती है और सोचने पर मजबूर करती हैं| ये समाज की पीढ़ियों पुरानी रूढ़िवादी प्रथाओं और विचारधारा पर करारा प्रहार करती है | ऐसी फिल्में ज़रूर बननी चाहिए और देखी भी जानी चाहिए | यदि आप गालियों और हिंसा से भरपूर वेब सीरीज देखते हुए थक गए हैं, तो यह एक ताजा हवा की सांस की तरह लगेगी क्यूंकि फिल्म बहुत दिल से बनाई गई है और एक अच्छा सन्देश भी देती है ।

सामान्य ज्ञान: मिज़वान (आज़मगढ़) शबाना के पिता कैफ़ी आज़मी का पैतृक गाँव है। वह चाहते थे कि जब भी संभव हो, उनके बच्चे अपने गांव में एक फिल्म बनाएं। शबाना और बाबा आज़मी ने फिल्म को मिजवां में शूट करके अपने पिता की अंतिम इच्छा को पूरा करने की कोशिश की है । यह भी अनुमान है कि फिल्म शबाना के खुद के जीवन से बहुत कुछ प्रेरित है|

फ़िल्म समीक्षक
दीपक चौधरी