(पुस्तक समीक्षा) प्रिंट मीडिया में साहित्य की कमी पर जरूरी दखल

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मुकुंद

इन दिनों किताबों की दुनिया में बहुत कुछ नया घट रहा है। हाल ही में छपी किताब ‘हिंदी प्रिंट मीडिया और साहित्य की घटती भूमिका’ पत्रकारिता के रेगिस्तान में फैले सन्नाटे को तोड़ती नजर आती है। इसके लेखक विक्रम उपाध्याय ने लंबे समय तक पत्रकारिता की है। उन्होंने मुख्य धारा की हिंदी पत्रकारिता में इस संक्रमण की पीड़ा को महसूस करने की कोशिश के साथ ‘हिंदी प्रिंट मीडिया और साहित्य की घटती भूमिका’ के माध्यम से इस विमर्श को व्यापक फलक पर आगे बढ़ाने की अच्छी और ईमानदार कोशिश की है। उन्होंने 124 पन्नों में इस गांभीर्य विषय को समेटते हुए इसके हर पहलू को बारीकी से समझाने की कोशिश भी की है। विक्रम लिखते हैं, ‘भारत सरकार के पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालय की सीनियर फैलोशिप के तहत तैयार यह पुस्तक सही मायने में मीडियाकर्मियों, विद्यार्थियों और पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी, ऐसा उन्हें भरोसा है।’

यह पुस्तक कई भागों में विभक्त है। इसका पहला भाग-‘समाचार पत्रः एक विवेचना’ है। इसमें लेखक का मत है कि आज का समय सूचना क्रांति का है। हर जानकारी खबर नहीं होती, पर हर खबर एक नई जानकारी होती है। जैसे स्टेशन पर ट्रेन के बारे में जानकारी देना खबर नहीं होती, पर कोई ट्रेन विलंब से चल रही है, रद्द हो गई है या तकनीकी कारणों से बाधित हो गई है, ये सभी जानकारियां खबर हो सकती हैं। विक्रम उपाध्याय का आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग करना इस किताब को अन्य पुस्तकों से अलग करता है।

किताब के शीर्षक की दृष्टि से इसके दो भागों ‘हिंदी प्रिंट मीडिया और साहित्यः एक दूसरे के पूरक’ और ‘ हिंदी पत्रकारिता कल, आज और कल’ को बहस के केंद्र में रखा जा सकता है। आर्थिक पत्रकार के रूप में लंबे समय तक राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हलचल मचाने वाले विक्रम उपाध्याय ‘हिंदी प्रिंट मीडिया और साहित्यः एक दूसरे के पूरक’ में लिखते हैं कि साहित्य और समाचार पत्र, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। साहित्य सामाजिक सरोकार का एक वृहद कैनवास है तो इस कैनवास को हिंदी प्रिंट मीडिया ने बड़े करीने से संवार कर आम आदमी तक पहुंचाया है। समाचार पत्रों के इतिहास का मूल्यांकन करें तो पाएंगे कि समाचार पत्र और साहित्य हर दौर में हमजोली बनकर विकसित हुए हैं। संदर्भ साक्षी हैं कि साहित्य ने समाचार पत्रों की उत्पत्ति और विकास में बड़ी भूमिका निभाई है। लेखक ने संदर्भों के हवाले से इस पर सवाल भी उठाए हैं।

‘ हिंदी पत्रकारिता कल, आज और कल’ इस किताब का अहम भाग है। लेखक विक्रम उपाध्याय ख्यातिलब्ध साहित्यकार और अपने समय के प्रमुख साप्ताहिक धर्मयुग के संपादक (स्मृति शेष) डॉ. धर्मवीर भारती की टिप्पणी से इस बदलाव को समझाते हैं। दरअसल भारती ने कहा था कि पत्रकारिता की दृष्टि जनसामान्य से हटकर दिनोंदिन वीआईपी बस्ती में सिमटती जा रही है। राष्ट्रपति भवन से चलती है, प्रधानमंत्री भवन तक पहुंचती है। विक्रम उपाध्याय ने भारती जी की पीड़ा को आज के संदर्भों में कालजयी बना दिया है। बहरहाल विक्रम उपाध्याय ने पत्रकारिता में हुए इस बड़े बदलाव पर बड़ी चोट की है। लेखक के बारे में ‘हिंदी प्रिंट मीडिया और साहित्य की घटती भूमिका’ के बैक कवर पर बहुभाषी संवाद समिति ‘हिन्दुस्थान समाचार’ के संपादक जितेन्द्र तिवारी ने सही ही टिप्पणी की है कि इस पुस्तक को पढ़ने से साहित्य सहित पत्रकारिता और साहित्यविहीन पत्रकारिता का अंतर समझ में आएगा।

किताब का नामः हिंदी प्रिंट मीडिया और साहित्य की घटती भूमिका

लेखकः विक्रम उपाध्याय

प्रकाशकः उत्पल पब्लिकेशन्स, दिल्ली

मूल्यः 135 रुपये