रतलाम, 9 मई (हि.स.)। म.प्र. जन अभियान परिषद उपाध्यक्ष विभाष उपाध्याय ने कहा कि राष्ट्र को सही दिशा देने के लिये महापुरूषों का स्मरण आवश्यक है। इसी दिशा में परिषद द्वारा प्रदेश के 313 विकासखण्डों में एकात्म पर्व के रूप में मनाया जा रहा है, अधिकांश समस्याएं हमारे व्यक्ति केंद्रित होने के कारण उत्पन्न हुई हैं, भारतीय दर्शन सदैव सिद्धांत केंद्रित रहा है। जब विभिन्न मत-मतांतरों में एकता लाने की आवश्यकता हुई, तब आचार्य शंकर का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने करुणा पूर्ण रूप से सभी मतों को संस्कारित कर वैदिक दर्शन अद्वैत वेदांत दर्शन का प्रचार किया।
उपाध्याय ने यह विचार आदि गुरु शंकराचार्य जी की जयंती सप्ताह के तहत आद्य शंकराचार्य जी के दर्शन और सांस्कृतिक एकता पर केंद्रित व्याख्यानमाला में व्यक्त किए। यह व्याख्यानमाला जन अभियान परिषद विकासखण्ड द्वारा आयोजित की गई थी। व्याख्यानमाला मेेंं दंडी स्वामी आत्मानंद जी सरस्वती महाराज ने कहा कि शंकर 3 वर्ष के थे तभी इनके पिता का देहांत हो गया था। बेहद प्रतिभाशाली होने के कारण शंकर 6 वर्ष की उम्र में ही प्रकांड पंडित हो गए थे। इन्होंने सभी वेदों और शास्त्रों का अध्ययन कर लिया था। मात्र 16 साल की उम्र तक ये 100 से अधिक ग्रंथों की रचना कर चुके थे। फिर ये अपनी माता से सन्यासी बनने के लिए अनुमति मांगने लगे। लेकिन माता सुभद्रा इसके लिए तैयार नहीं थी। फिर अपनी निरंतर हठ से इन्होंने माता को संन्यास के लिए मना लिया। इन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया और सनातन धर्म की परंपराओं को पुन: जीवित किया। सनातन धर्म के प्रचार के लिए इन्होंने 4 मठों की स्थापना की। आज भी इन मठों के गुरुओं को शंकराचार्य की उपाधि प्राप्त होती है।
विधिक जागृति ज्ञान विज्ञान पीठ अध्यक्ष पं. संजय शिवशंकर दवे ने बताया कि आदि शंकराचार्य भारत में चारों दिशा में घूमकर 04 मठों की स्थापना कर भारत को एकता के सूत्र में बांधकर एकांतवाद, वेदवाद, एकात्मवाद व जीवन दर्शन को जन जन तक पहॅुचाया। आज पुन: सभी विषयों का आत्मसात करने की आवश्यकता है।
एमआईडीएच कमेटी,भारत सरकार सदस्य अशोक पाटीदार ने कहा कि स्वामी विवेकानंद ने वेदांत के ‘सत्य एक है’ पाठ को भारत ही नहीं, सारी दुनिया के गले उतार दिया था। आचार्य शंकर के बाद संभवत: विवेकानंद ही उनकी कोटि के आध्यात्मिक महापुरुष में ठहरते हैं, यह दुर्योग ही है कि स्वामी विवेकानंद को भी श्री आचार्य शंकर की तरह ही बहुत थोड़ा जीवन मिला। आचार्य शंकर ने तो मात्र बत्तीस वर्ष की उम्र में जो कर दिखाया, वह अकल्पनीय है। उन्होंने एकत्व का आध्यात्मिक दर्शन प्रदान किया, जिसे हम अद्वैतवाद के रूप में जानते हैं, भारत ही नहीं पश्चिम में भी जिसका प्रसार सही अर्थों में अपने समय में स्वामी विवेकानंद ने किया। कार्यक्रम में अन्य अतिथियों द्वारा भी विचार प्रकट किये गये।