आप सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव को नहीं जानते। जानने की ज़रूरत भी नहीं। पर आप कई अजय, विजय, संजय, प्रमोद, अमित या ऐसे नाम जानते होंगे जो आपके पड़ोसी या करीबी रिश्तेदार होंगे या फिर वो खुद आप भी हो सकते हैं। संजय सिन्हा की कहानी आज बहुत ध्यान से पढ़िएगा। बहुत सोचिएगा। लोगों से साझा कीजिएगा। अगर लगे कि संजय सिन्हा आपको डरा रहे हैं तो प्लीज़ डरिएगा। किसी से घृणा करने काम मन करे तो घृणा भी कीजिएगा। मन हो तो मुझे भरपेट कोसिएगा। गालियां दीजिएगा। मेरे लिखे से आपके मसीहाओं को चोट पहुंचे तो मुझे फेसबुक पर ब्लॉक कर दीजिएगा। पर इस कहानी को पढ़िएगा ज़रूर और ध्यान रहे जितनी बार मैं सत्येंद्र लिखूंगा उतनी बार उसे अपना नाम पढ़िगा।
सत्येंद्र हमारे साथ नौकरी करते थे। मैं चाहता तो पत्रकार लिख सकता था पर पत्रकार लिखने से वो थोड़े अलग हो जाएंगे और आप उनसे खुद को नहीं जोड़ पाएंगे। वैसे भी अखबार और टीवी न्यूज़ चैनल में जो लोग डेस्क पर काम करते हैं, वो असल में नौकरी करते हैं। वो ब्रांड नहीं होते हैं। वैसे उनके पास एक परिचय पत्र होता है, विजिटिंग कार्ड भी होता है जिस पर प्रेस लिखा होता है जिससे वो ब्रांड वाले पत्रकारों को मिलने वाली सहूलियत का फायदा यदा-कदा उठा लेते हैं। लेकिन असल में वो ऐसे नहीं होते कि उन्हें वो फायदा मिल ही जाए।
तो सत्येंद्र हमारे साथ नौकरी करते थे। मुझसे उनका परिचय बहुत देर से हुआ। वो किसी बैंक कर्मचारी, किसी स्कूल टीचर, किसी बिजली विभाग के कर्मचारी की तरह हर रोज़ ज़िंदगी से लबरेज होकर ऑफिस आते थे, पूरी शिद्दत से अपना काम करके खुशी-खुशी घर लौट जाते थे, जहां उनकी पत्नी और दो बच्चे उनका इंतज़ार करते थे।
हम सब ऐसी ही नौकरी करते हैं। हर रोज़ ऑफिस आते हैं, अपना काम करते हैं और घर लौट जाते हैं। वो लोग थोड़े अलग होते हैं जिन्हें पाउडर, क्रीम और सूट मे लिपटे हुए आप टीवी स्क्रीन पर देखते हैं। आपको लगता होगा कि ये चमकते हुए लोग ही असल में पत्रकार होते हैं। नेता लोग उन्हें पहचानते हैं, सरकारी अमला उन्हें जानता है। पर आपको ठीक से नहीं पता होगा कि वो चमचमाते चेहरे जो बोलते हैं उसके डॉयलाग लिख कर उन्हें कोई संजय सिन्हा, कोई सत्येंद्र श्रीवास्तव देते हैं। क्योंकि वो पर्दे के पीछे होते हैं इसलिए उनकी अहमित आपके लिए कुछ नहीं होती। पर उनके लिए होती है जो पर्दे के पीछे उनसे काम लेते हैं। तो सत्येंद्र से मैं मिला चैनल हेड होने के बाद। वो ऐसे नहीं थे कि मैं दूर से उन्हें जानता। वो ऐसी कोशिश भी नहीं करते थे कि कोई उन्हें जाने।
मैं जब पहली बार उनसे मिला तो वो बिल्कुल इंप्रेसिव नहीं लगे। टीवी में इंप्रेसिव दिखने के लिए चुस्त पैंट, चुस्त कमीज़ और चमचमाते जूते होने चाहिए। पर वो ढीली पैंट और लटकी हुई शर्ट में मुझसे मिलने आए थे। हमारे यहां ऐसे लोगों को ढीला कहा जाता है। तो सत्येंद्र ढीले थे, वैसे ही जैसे फिल्म ‘रब ने बना दी जोड़ी‘ में शाहरुख खान बतौर बिजली विभाग के कर्मचारी थे।
अब मैं जब उनके बारे में लिख रहा हूं तो मैं कह सकता हूं कि आप उनकी तस्वीर गौर से देखेंगे तो आपको सचमुच वो उसी फिल्म के शाहरुख खान नज़र आएंगे। आपके घर परिवार, मुहल्ले में वैसे शाहरुख खान बहुत दिखते हैं।
काश वो समझ पाते कि करीने से बाल कटवाना, चश्मे का फ्रेम थोड़ा मॉडर्न कर लेना और चुस्त पैंट सिलवा कर कमीज़ भीतर खोंस लेना कोई मुश्किल काम नहीं होता! पर उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि वो ये जानते थे कि आदमी की असली पहचान बाहर से नहीं भीतर से होती है।
मैं जब पहली बार सत्येंद्र से मिला और उनसे थोड़ी देर बात हुई तो मैं समझ गया कि ये आदमी खांटी पत्रकार है। पढ़ा-लिखा और समझ से भरपूर। दूसरी मुलाकात में जब वो एक स्क्रिप्ट ले कर मेरे पास आए तो मैं रुक गया। मैंने कई बार उनके लिखे को पढ़ा। स्क्रिप्ट में किडनी डोनेशन से जुड़ी किसी की कहानी थी। स्क्रिप्ट में उन्होंने आखिर में ये संदेश देने की कोशिश की थी स्वस्थ व्यक्ति आसानी से किडनी डोनेट कर सकता है। कहानी बहुत मार्मिक थी। किसी ऐसे व्यक्ति की थी जिसमें पति का गुर्दा खराब हो जाने के बाद घर के सभी सदस्यों ने जब दूरी बरत ली तो पत्नी आगे आई थी।
मैंने पूरी कहानी पढ़ी। फिर मैंने उनसे यूं ही कहा कि सत्येंद्र जी आपने तो स्क्रिप्ट में दर्द की स्याही छिड़क दी है। सत्येंद्र ने धीरे से कहा कि सर, मेरी अपनी जिंदगी की कहानी भी कुछ इसी स्क्रिप्ट की तरह है। तीन साल पहले मेरी जान बची मेरी पत्नी के गुर्दे से। मैं चुप रह गया। पैंतालीस साल का आदमी और दर्द के साथ इतना बड़ा रिश्ता? फिर सत्येंद्र से रोज़ बात होने लगी। मैं उनका बॉस था इसलिए शुरू में वो एक दूरी भी रखते थे, पर जल्दी ही वो ये समझ गए कि उनका बॉस रिश्तों को जीता है। फिर तो हमारी दोस्ती हो गई। हम भावनात्मक स्क्रिप्ट पर खूब चर्चा करते थे। हालांकि उनकी राजनैतिक समझ भी गज़ब की थी।
पिछले साल जब कोरोना आया तो उन्होंने मुझसे कहा कि सर, अगर मैं वर्क फ्रॉम होम कर लूं तो कैसा रहेगा? क्योंकि मेरे शरीर में किडनी बदले जाने के कारण इम्युनिटी कमज़ोर है तो मुझे डर है कि कहीं ये कोरोना मुझसे सट न जाए। मैंने खुशी-खुशी उन्हें घर से काम करने की अनुमति दे दी। वो कमाल के मेहनती व्यक्ति थे। कमाल के स्वाभिमानी भी। कमाल के ईमानदार भी। एक साल में एक भी दिन ऐसा नहीं आया जब घर से उन्होंने नौ घंटे रोज़ काम न किया हो। जिस दिन काम नहीं किया, उस दिन की छुट्टी भर दी। हम जब एक-एक दिन की छुट्टी का हिसाब रखते हैं, चाहते हैं कि बिना काम के हमारी उपस्थिति दर्ज हो जाए, सत्येंद्र ने एक भी दिन ऐसा नहीं होने दिया।
हम सबने सत्येंद्र को पूरे एक साल बचा कर रखा। पर पिछले महीने पता नहीं कैसे उनकी पत्नी को कोरोना हो गया। सत्येंद्र ने फोन किया कि सर, पत्नी पॉजिटिव हो गई हैं। मैंने कहा कि सत्येंद्र वो डोनर हैं। उनकी तबियत को कुछ नहीं होगा, पर तुम अपना ख्याल रखना। तुम रिसीवर हो। तुम्हारी इम्युनिटी कमज़ोर है। तुम्हें खुद को बचाना है।
सत्येंद्र की पत्नी को ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ी तो वो खुद गाड़ी चला कर ऑक्सीजन सिलेंडर कहीं से ले आए। पता नहीं कितने सौ का वो ऑक्सीजन उन्हें 17 हज़ार में मिला। पैसे लगे पर वो खुश थे कि पत्नी ठीक हो जाएगी। पत्नी ठीक हो गई। हालांकि पत्नी की तबियक खराब होने पर हम लोगों की सलाह पर वो अपने ही फ्लैट के ऊपर एक खाली कमरे में अकेले शिफ्ट हो गए थे। पत्नी ठीक हो गई थीं। पर हाय री किस्मत! सात पहरे में पता नहीं कैसे सत्येंद्र से कोरना सट गया।
सत्येंद्र ने संदेश भेजा, “संजय सर कोरोना पॉजिटिव हो गया हूं।” मेरा माथा ठनका।मैंने तुरंत उन्हें संदेश भेजा कि बहुत ख्याल रखना। चिंता मत करना। सत्येंद्र को बहुत भरोसा था कि उनका बॉस इमरजंसी मे कुछ न कुछ कर देगा। आखिर हम पत्रकार हैं। हमारी पहुंच है। सत्येंद्र 29 अप्रैल को कोविड पॉजिटिव हुए। खुद से खुद को ऑक्सीजन लगा कर घर में आराम करने लगे। पर 30 अप्रैल को ऑक्सीजन लेबल गिरा। घर के सिलेंडर से काम नहीं चल रहा था। तीस की रात मैंने उन्हें दिल्ली के यमुना विहार के सड़ैले अस्पताल पंचशील में भेजा। पता नहीं किसने ऐसे अस्पताल को अस्पताल का लाइसेंस दिया होगा। हालांकि जहां मैंने उन्हें वहां भेजा था वहां के डॉक्टर के पास उनकी पूरी रिपोर्ट पहले भेज दी गई थी कि किडनी ट्रासंप्लांट का मामला है, ऑक्सीजन का लेबल ये है। डॉक्टर ने उन्हें वहां भर्ती करने के लिए बुलाया था। वो वहां पहुंचे तो पता चला कि उस अस्पताल में न तो हाई प्रेशर ऑक्सीजन मशीन है न आईसीयू।
डॉक्टर ने नाक में आक्सीजन पाइप लगाए मरीज़ को उल्टे पांव लौटा दिया कि यहां जान नहीं बचेगी, कहीं और जाओ। कोई दूसरा दरवाज़ा देखो। सत्येंद्र ने फोन किया कि संजय सर, वो तो बहुत बेकार हॉस्पिटल है। अब कहां जाऊं? मैं लाचार था। कहां भेजूं। किससे कहूं। सारे अस्पताल तो फुल हैं। फुल नहीं हैं तो उनके लिए खाली हैं जिनके पास सचमुच बड़ी वाली सिफारिश है। दिल्ली में एक भी अस्पताल ऐसा नहीं होगा जहां वीआईपी के लिए हर समय कई जगह खाली न हो। पर सत्येंद्र वीआईपी नहीं थे। वो पर्दे के सितारे भी होते तो कोई डॉक्टर उन्हें पहचान कर ही जगह दे देता। पर कहा न, वो किसी अजय, विजय, संजय की तरह एक सामान्य आदमी थे। उनको जगह मिलने पर कोई वाह-वाही नहीं होनी थी। कोई सुर्खियां नहीं मिलनी थीं। वो ठीक हो भी जाते तो किसी के काम नहीं आने वाले थे। वो मर भी जाते तो खबरों में जगह नहीं पाने वाले थे। फिर क्या फायदा?
मैंने सत्येंद्र से कहा कि तुम अभी तो घर जाओ, मैं कुछ जुगाड़ करता हूं। सत्येंद्र को मालूम था कि उन्हें कोरोना होना मतलब सीधे यमराज से सामना। उन्होंने फेसबुक पर पता नहीं किसे-किसे टैग करके लिखा कि मुझे हॉस्पिटल में बेड की सख्त ज़रूरत है। उन्हें जहां से उम्मीद की किरण दिखी, जहां से उन्हें लगा कि ये लोग सारा दिन मदद के नाम पर ख़बरों में होते हैं, उन सभी को उन्होंने लिखा। पर वो टीवी स्क्रीन के चमकीले पत्रकार नहीं थे। मुंह पर पाऊडर और क्रीम लगा कर कभी चमचमाते हुए नहीं दिखे। किसी मसीहा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई। सरकार से तो हम सब ही लगातार फोन पर मदद मांग रहे थे, पर कहीं से कुछ नहीं हो रहा था। हर जगह हाउसफुल का बोर्ड लगा था।
मैं निराश होकर सो गया। मैंने सत्येंद्र से कहा कि सुबह कुछ हो जाएगा। पर सत्येंद्र लगे रहे। सारी रात लगे रहे। किसी की पहुंच पर उन्हें गाजियाबाद से उठ कर गुड़गांव जाना पड़ा। वहां उन्हें पारस अस्पताल में जगह मिली। सत्येंद्र ने देर रात संदेश भेजा कि सर चिंता मत कीजिएगा, भर्ती हो गया हूं। सत्येंद्र भर्ती हो गए। ये राहत की बात थी। मुझे मालूम था कि अस्पताल में इलाज का लंबा सिलसिला चलेगा। वहीं से सत्येंद्र से फोन पर बात होती रही। 1 मई को वो भर्ती हुए। 7 मई को उन्होंने संदेश भेजा कि वो ठीक हैं। 10 मई की रात उनके बेटे ने बताया कि पापा बात नहीं कर पा रहे। टेक्स्ट पर बात हो सकती है। 11 मई की सुबह मैंने लिखा, “सत्येंद्र चिंता मत करना। मैं हूं ना!”
सत्येंद्र का कोई जवाब नहीं आया तो मैंने उनके बेटे को फोन किया। बेटे ने बताया कि पापा वेंटिलेटर पर हैं।
मैं चुप था। मैंने कहा था कि मैं हूं न! पर मैं नहीं था। बेटे से मैंने कहा कि कोई ज़रूरत हो तो बताना। उसने बताया कि कोई टॉक्लिज़ुमाब इंजेक्शन चाहिए। डॉक्टर ने लिखा है कि यही आखिरी उम्मीद है। पर वो कहीं मिल नहीं रहा। फिर दूसरे डॉक्टर ने कहा कि इसकी जगह फलां इंजेक्शन इसका विकल्प है। वो ले आओ। बेटा 28 हज़ार रुपए में उसे खरीद लाया। बड़े डॉक्टर ने देखा और मना कर दिया। किसके कहने से ये लाए? बेटे ने कहा अस्पताल के एक डॉक्टर ने… नहीं उनका कहा नहीं चलेगा। फिर कोई और इंजेक्शन आया। वो भी नहीं लगा।
आखिर टॉकिलिजुमाब इंजेक्शन का एक डोज मिला। बहुत सिफारिश और बहुत पैसे खर्च करके, पर तब तक उनकी तबियत इस लायक बची ही नहीं कि वो इंजेक्शन उन्हें लग पाए। बुधवार तक उनकी तबियत बहुत बिगड़ गई। डॉक्टर को बता दिया गया था कि ये पत्रकार हैं। ध्यान रखिएगा। पर ध्यान का वक्त निकल चुका था। कल सुबह बेटे ने फोन किया कि पापा नहीं रहे। बात खत्म।
आज आपको इतनी लंबी कहानी सुनाने के पीछे उद्देश्य बस इतना ही बताना है कि आप किसी के भरोसे न रहें। आप इस देश के चमकीले नागरिक नहीं हैं। ईश्वर न करे कुछ हो गया तो यकीन मानिए कहीं जगह नहीं मिलेगी। जगह मिल जाएगी तो दवा नहीं मिलेगी। दवा भी मिल जाएगी तो जान नहीं बचेगी क्योंकि इन सबमें बहुत देर हो चुकी होगी।
फेसबुक पर लोग आरआईपी लिख देंगे। श्रद्धांजलि दे देंगे। जिसका मन हो आप उसकी सराहना करते रहिए। जिस पर मन हो भरोसा करते रहिए पर इस सच को आत्मसात कर लीजिए कि आपके लिए कोई नहीं है। आप एक वोट हैं। उससे अधिक कुछ नहीं। आप फेसबुक वीर हैं, उससे अधिक कुछ नहीं। आप जिनका पक्ष लेने के लिए मुझे कोसेंगे उन्हें आपकी रत्ती भर परवाह नहीं। मेरा यकीन मानिए। इस देश को सत्तर साल पहले नेहरू जी ने खराब किया, इंदिरा गांधी ने बर्बाद किया, राजीव गांधी ने सड़ा दिया, मनमोहन सिंह ने उजाड़ दिया। सत्तर साल वाले को आपकी चिंता नहीं थी, पर सात साल वाले को भी आपकी चिंता नहीं है। उन्हें चिंता हो सकती है उनकी जो चुस्त पैंट पहनते हैं, शर्ट खोस कर पहनते हैं या पाऊडर लगा कर टीवी पर दिखते हैं या फिर सचमुच सिफारिशी हैं। उन्हें चिंता हो सकती है उनकी जो चमकीले हैं। उसके अलावा बाकी सब आंकड़े हैं। आप भी आंकड़ा ही हैं।
घर में मर जाइएगा तो कोई झांकने नहीं आएगा, अस्पताल में मर जाइएगा तो पास की किसी नदी में बहा दिए जाइएगा। ध्यान रहे ये देश चमकीले लोगों के लिए है। आपके और हमारे लिए नहीं।
सत्येंद्र मर गया है। मैं भी मर गया हूं। आप भी किसी जीवित की लिस्ट में अपने को मत मानिएगा। आप भी मरे हुए हैं। मरे हुए लोग चुप रहते हैं। हम चुप हैं क्योंकि हम मरे हुए हैं।