आपातकाल विस्मृत न हो

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आपातकाल विस्मृत न हो

डॉ. आशीष वशिष्ठ

अंग्रेजों से आजाद होने के बाद भारत लोकतांत्रिक देश तो बन गया, लेकिन ठीक 25 साल बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से थोपी गई इमरजेंसी में लोकतंत्र की धज्जियां उड़ गई थी। 25 जून, 1975 की आधी रात अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए इंदिरा ने तानाशाही का ऐसा नमूना पेश किया, जो उस पीढ़ी के लोग अब भी नहीं भूल पाए हैं।

बीते साल 25 जून को लोकसभा अध्यक्ष चुने जाने के तुरंत बाद ओम बिरला ने आपातकाल की निंदा करते हुए एक प्रस्ताव पढ़ा, जिसमें आपातकाल को ‘प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा संविधान पर हमला’ बताया गया। इस कदम के बाद सदन में कांग्रेस सांसदों ने विरोध किया। कांग्रेस की ओर से कहा गया कि पांच दशक पुराने इस काले दौर का स्मरण नहीं किया जाना चाहिए। संयोगवश, इंडिया ब्लॉक के सदस्यों ने एक दिन पूर्व 24 जून को सदस्य के रूप में शपथ लेते समय संविधान की प्रतियां उठाई थीं।

ऐसे में अहम सवाल यह है कि क्या कांग्रेस आपातकाल को सही मानती है या फिर यह चाहती है कि लोकतंत्र को कलंकित करने और संविधान का निरादर करने वाले इस तानाशाही भरे कदम का स्मरण नहीं किया जाना चाहिए? क्या कांग्रेस कांग्रेस चाहती है कि आपातकाल पर चर्चा नहीं होनी चाहिए। लेकिन आपातकाल के भुगतभोगी आम लोगों और नेताओं का मानना है कि अतीत की भूलों को विस्मृत करने से उनके दोहराए जाने का खतरा बढ़ जाता है।

वास्तव में कांग्रेस और उसके नेता आपातकाल की गलती को स्वीकार नहीं करते। अगर वह अपनी गलती स्वीकार करते तो वह यह कहने की हिम्मत जुटाते कि 49 साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से देश पर आपातकाल थोपने और राजनीतिक विरोधियों, मीडिया एवं जनता के खिलाफ दमन का चक्र चलाना एक भूल थी।

कांग्रेस को आपातकाल की याद दिलाना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि पिछले कुछ समय से वह संविधान के खतरे में होने का फर्जी हौवा खड़ा कर उसके प्रति प्रतिबद्धता जताने में लगी हुई है। यह ठीक है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का संख्या बल बढ़ा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह दबे-छिपे स्वर में आपातकाल को सही ठहराने की कोशिश करती दिखने लगे। उसकी यह कोशिश तो आपातकाल के स्मरण को और अधिक आवश्यक ठहराती है।

यदि वह संविधान के प्रति इतनी ही अधिक प्रतिबद्ध है तो फिर यह क्यों नहीं स्वीकार करना चाहती कि इंदिरा गांधी ने अपनी संसद सदस्यता खारिज किए जाने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए आपातकाल का सहारा लिया और इस क्रम में इसी संविधान को कुचला और उसकी प्रस्तावना को मनमाने तरीके से बदल दिया।

नयी पीढ़ी तो आपातकाल की विभीषिका से बिल्कुल अपरिचित है। बातचीत के क्रम में इस पीढ़ी ने आपातकात शब्द जरूर सुना होगा लेकिन 25-26 जून, 1975 की रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा देश पर थोपे गए आपातकाल के दंश की कई पीढ़ियां भुक्तभोगी हैं। आपातकाल के दौरान पूरा देश कारागार में परिवर्तित हो गया था। विपक्ष के सभी नेताओं को रात में ही जगा कर नज़दीकी जेल में ज़बरन उन्हें डाल दिया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी सहित 26 संगठनों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। आपातकाल के मुखर आलोचक रहे फिल्मी कलाकारों को भी इसका दंश झेलना पड़ा। किशोर कुमार के गानों को रेडियो और दूरदर्शन पर बजाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। देव आनंद को भी अनौपचारिक प्रतिबंध का सामना करना पड़ा था।

आपातकाल की कहानी को बार-बार दोहराना इसलिए भी जरूरी है कि आज की युवा पीढ़ी कम से कम यह जान ले कि जो आजादी और स्वतंत्रता उसे अनायास मिली है, सहज सुलभ है, वह दरअसल कितने बलिदानों से मिली है और उसे कायम रखने के लिए कितनी लड़ाइयां हुई हैं! लोगों को पता चलना चाहिए कि संविधान की हत्या किसे कहते हैं।

पूर्व उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू के शब्दों में, ”आपातकाल की घोषणा ने देश की लोकतांत्रिक संरचना को हिला कर रख दिया। लोकतांत्रिक व्यवस्था के कमज़ोर पक्षों पर व्यापक विचार विमर्श हुआ और देश ने दोबारा कभी भी इसे नहीं लगाए जाने का प्रण किया। यह प्रतिज्ञा तभी बनी रहेगी जब देश बार बार उस आपातकाल से मिलने वाले सबक को याद करता रहेगा। ख़ास कर, युवाओं को आज़ाद भारत के उस काले अध्याय की जानकारी और उससे मिले सबक को जानना होगा।”

देश में आपातकाल लागू होने के बाद कई त्रासद घटनाएं हुईं। दिल्ली का तुर्कमान गेट कांड भी इनमें एक था। मुस्लिम बहुल उस इलाके को संजय गांधी ने दिल्ली के सौंदर्यीकरण के नाम पर खाली करा दिया। यह काम लोगों की सहमति से नहीं, बल्कि जबरन किया गया गया। बुल्डोजर से लोगों के घर ढहाए गए। जिन्होंने विरोध किया, उन्हें जेलों में ठूंस दिया गया। विरोध के दौरान पुलिस ने लाठियां बरसाईं और आंसू गैस के गोले छोड़े। पुलिस ने गोलियां भी चलाईं। चार लोगों की जान चली गई।

संजय गांधी ने तब तक परिवार नियोजन का अभियान छेड़ दिया था। सड़क से भिखारियों, झोपड़पट्टी के लोगों और राहगीरों को पकड़ कर जबरन नसबंदी के टार्गेट पूरे किए जाने लगे। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में 18 अक्टूबर 1976 को नसबंदी अभियान का विरोध कर रहे आंदोलकारियों पर पुलिस ने सीधी फायरिंग कर दी थी। जिसमें 42 बेगुनाहों की मौत हो गई थी। मृतकों की स्मृति में यहां शहीद चौक बना हुआ है। एक रिपोर्ट के मुताबिक इमरजेंसी के दौरान देशभर में 1 करोड़ 10 लाख से ज्यादा लोगों की नसबंदी कर दी गई थी।

तत्कालीन अटार्नी जनरल नीरेन डे ने तब सुप्रीम कोर्ट में यह कुबूल किया था कि जीने का अधिकार स्थगित है। यदि स्टेट आज किसी की जान भी ले ले तो भी उसके खिलाफ कोई व्यक्ति कोर्ट की में नहीं जा सकता। ऐसे मामलों को सुनने के कोर्ट के अधिकार खत्म कर दिए गए हैं। ऐसा तो अंग्रेजों के राज में भी नहीं था। विलायती शासन में भी कम से कम जनता को कोर्ट में जाने की छूट तो मिली हुई थी।

आपातकाल की अवधि के दौरान सत्ता के दुरुपयोग, कदाचार और ज्यादतियों के विभिन्न पहलुओं की जांच के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जेसी शाह की अध्यक्षता में शाह आयोग का गठन किया था। आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि आपातकाल के दौरान एक लाख से ज्यादा लोगों को निवारक हिरासत कानूनों के तहत गिरफ्तार किया गया था।

24 जून 2024 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इमरजेंसी का जिक्र करते हुए कहा- ”जो लोग इस देश के संविधान की गरिमा को समर्पित हैं, जो लोग भारत की लोकतांत्रिक परंपराओं पर निष्ठा रखते हैं, उनके लिए 25 जून न भूलने वाला दिवस है।”

इमरजेंसी के विरोध में केंद्र की बीजेपी सरकार ने हर साल 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाने का फैसला किया है। असल में, ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाने का मकसद संविधान की हत्या करने वालों और इस घटना से लोगों को हुई तकलीफों के बारे में आज की पीढ़ी को परिचित कराना है।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था, “जब भी मैं निराशा होता हूं, तब इतिहास के पन्नों को पलटकर सत्य और प्रेम की जीत को दोहराने वाले तथ्यों का स्मरण करता हूं। इतिहास के पन्नों पर आतातायी और हत्यारे भी रहे हैं और कुछ पल के लिए वो अजेय भी दिखे लेकिन यह खास ख्याल रखें कि अंत में उनका खात्मा हुआ है। जीत हमेशा सत्य की हुई है।” हमें अपने कटु अनुभवों से सीख लेने की आवश्यकता है, ताकि न्यू इंडिया के सपने को साकार कर सकें।

(लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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