पराधीनता काल के भीषण अत्याचारों से केवल सल्तनत काल का इतिहास ही रक्त रंजित नहीं है, अंग्रेजी काल में भी असंख्य क्रूरतम घटनाएँ इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं जिन्हें पढ़कर आज भी प्रत्येक भारतीय आत्मा रो उठती है । अंग्रेजों ने भी क्रूरता और अत्याचार की सभी मर्यादाएँ तोड़ीं हैं। ऐसी ही एक घटना कानपुर के पास बिठूर की है । अंग्रेजों ने एक तेरह वर्षीय बालिका मैना देवी को पहले कठोरतम यातनाएँ दीं और फिर जिन्दा जलाया। इस बालिका मैना देवी का अपराध इतना था कि वह नाना साहब पेशवा की दत्तक पुत्री थी ।
1857 के स्वाधीनता संग्राम में कानपुर एक प्रमुख केन्द्र था । यहीं से ही क्राँति के संदेश देश भर में भेजे गये थे। प्रत्येक स्थान के लिये क्रान्ति के कारण और तिथियाँ अलग थीं। सबको संयोजित करने की योजना कानपुर में ही बनी थी। इसकी कमान नाना साहब पेशवा के हाथ में थी । उनकी ओर से तात्याटोपे ने टोली बनाकर भारत भर में संदेश वाहक भेजे थे। संदेशों के आदान प्रदान का काम भ्रमण करने वाले संन्यासी और ग्राम पुरोहित कर रहे थे। देश भर में वातावरण बनाकर कानपुर में क्राँति का शंखनाद किया गया और नाना साहब ने सत्ता भी संभाल ली।
नाना साहब पेशवा ने सभी अंग्रेज परिवारों को सुरक्षित आगरा भेजने का प्रबंध भी कर लिया था। इसके लिये दो सौ नावें एकत्र कर लीं गई थी ताकि जल मार्ग से ये सभी यूरोपीय परिवार सुरक्षा के साथ जा सकें कुछ नावें रवाना भी हुईं किन्तु सत्ती चौरा में कुछ सैनिकों में प्रतिक्रिया हुई और कुछ अंग्रेज परिवारों को मार डाला गया। इस घटना से अंग्रेज बौखलाए। समाचार लंदन तक पहुंचा। कानपुर में दमन के आदेश हुये। अपनी क्रूरतम सैन्य कार्रवाई के लिये कुख्यात जनरल नील और जनरल हैवलॉक अपनी अपनी सेनायें लेकर कानपुर पहुँचे। अंग्रेजों का पारा सातवें आसमान पर था। उन्हें किसी भी प्रकार अपनी सत्ता तो वापस पाना ही थी, किन्तु इससे अधिक वे अंग्रेज परिवारों के वध का बदला लेना चाहते थे वह भी इस क्रूर योजना के साथ कि भविष्य में कोई भी अंग्रेज परिवारों पर आँख उठाकर देखने ने दुस्साहस न कर सके ।
जनरल नील और हैवलॉक की सेनाओं ने पूरे क्षेत्र पर घेरा डाला और कत्लेआम प्रारम्भ कर दिया। यह कत्लेआम पहले कानपुर नगर के आसपास के गाँव में हुआ। कानपुर नगर के सभी संपर्क मार्ग बंद कर दिये गये थे। ताकि कोई न नगर से बाहर जा सके और कोई भीतर आ सके। खाद्यान, सब्जी या सैनिक सामग्री आदि किसी भी प्रकार की सहायता नगर के भीतर न पहुँच सकी । न कोई संदेश आ सके। इस रणनीति से कानपुर का संपर्क तो पूरे भारत से टूटा ही इसके साथ आतंक भी फैला। अंग्रेज क्राँतिकारियों का मनोबल तोड़कर आत्म समर्पण के लिये विवश भी करना चाहते थे और नाना साहब को जीवित पकड़ना चाहते थे। लेकिन नाना सहाब भी अपनी रणनीति से काम कर रहे थे। अंग्रेजों तो सूचना थी कि नाना सहाब कानपुर में हैं लेकिन वे बिठूर से क्राति का संचालन कर रहे थे।
नाना सहाब को पकड़ने के लिये अंग्रेजी सेना ने पहले कानपुर में विध्वंस और नरसंहार किया। यहाँ उन्हें नाना साहब के बिठूर पहुँचने की सूचना मिली। अंग्रेजी सेना फिर बिठूर पहुँची। बिठूर का किला घेर लिया गया। नाना साहब जानते थे कि कानपुर के बाद अंग्रेज बिठूर आयेगें वे बिठूर का किले की नाकाबंदी होने से पहले ही वेश बदलकर निकल गये पर उनके द्वारा गोद ली गई बालिका मैना देवी वहीं किले में रह गई। नाना साहब ने मैना को तब गोद लिया था जब वह बहुत छोटी थी। मैना देवी उसी किला महल में खेल कूद कर बड़ी हुई थी।
यहाँ इतिहासकारों के अलग अलग मत हैं। कुछ का मानना है कि नाना साहब अपनी पुत्री को भी साथ ले जाना चाहते थे पर वह स्वयं जिद करके मैना वहीं रुक गई। जबकि कुछ का मानना है कि मैना देवी बिठूर में पहले से थी। नाना साहब जब वेष बदलकर कानपुर से निकले तब वे बिठूर आये ही नहीं थे। नाना साहब कानपुर से अज्ञातवास को चले गये थे। उन्होंने अज्ञातवास से ही अपने विश्वासपात्र सैनिकों को बालिका को लेने के लिये बिठूर भेजा तब तक देर हो चुकी थी। बिठूर का किला घिर चुका था । कुछ सैनिक बालिका को निकालते किले में प्रविष्ट तो हो गये पर वे बाहर न निकल सके । सत्तीचौरा कांड के बाद बौखलाए अंग्रेजों ने यहाँ भी वही रणनीति अपनाई । न कोई बाहर आ सके और न कोई भीतर जा सके । उन्होंने पानी की सप्लाई भी काट दी थी। अंग्रेज सत्ती चौरा कांड केलिये नाना साहब को ही जिम्मेदार मान रहे थे । इसलिये नाना साहब को बहुत जल्द जिन्दा या मुर्दा पकड़ना चाहते थे। घेरा डालकर अंग्रेज सेना की तोपें गरज उठी । महल लगभग ध्वस्त हो गया । सेना अंदर घुसी।
सैनिकों को जो सामने दिखा उसे मौत के घाट उतारा। सारा सामान लूटा और बालिका मैना बाई को पकड़कर सैन्य अधिकारी आउटरम के सामने पेश किया गया । फिर हैवलॉक के सामने लाया गया । अंग्रेजों ने बालिका से नाना साहब का पता पूछा। बालिका जानती ही नहीं थी कि नाना साहब कहाँ हैं। हैवलॉक के आदेश पर बालिका को कठोर यातनाएँ दी गईं । खंबे से बाँधकर गर्म सलाखों से दागा गया । जली हुई त्वाचा पर नमक मिरची डालकर नाना साहब का पता पूछा गया। एक तो बालिका को पता ही न था कि वह नाना साहब कहाँ हैं, दूसरे वह नाना साहब की दत्तक पुत्री थी उसका पालन पोषण स्वाभिमान जागरण के साथ हुआ था।
यातनाओं के बीच भी बालिका ने स्पष्ट और बेझिझक उत्तर दिये । वह अचेत हो गई। अंग- अंग से घायल वह तेरह वर्षीय बालिका दो दिन तक पेड़ से बंधी रही। उसे पानी तक नहीं दिया गया। दो दिन बाद उस पर घासलेट डालकर आग लगा दी गई। वह 3 सितम्बर 1857 का दिन था । जब अंग्रेजों की क्रूरता से इस बालिका का बलिदान हुआ । इसके बाद पूरे महल को तोप से ध्वस्त कर दिया गया। जितने लोग जिन्दा मिले सभी मार डाले गये और नाना साहब का पता बताने वाले को एक लाख रुपए का पुरस्कार देने की घोषणा हुई। पर नाना साहब का पता कभी किसी को न लगा ।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि नाना साहब नेपाल चले गये थे और वहीं उन्होंने देह त्यागी। जबकि कुछ इतिहासकारों का मानना था कि वे मध्य प्रदेश में पार्वती नदी के किनारे बसे गांव पीलूखेड़ी में साधुवेश में रहे और वहीं उन्होंने देह त्यागी। सत्य जो भी हो किन्तु जिस प्रकार बालिका मैनादेवी का बलिदान हुआ उस वृतांत को पढ़कर आज भी भारतीयों की आँखे नम हो जाती हैं।