इसी 17 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली-एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र योजना) को करोड़ों की लागत से बनी दो बड़ी सड़कों का सौगात देते हुए कहा कि आने वाले दिनों में दिल्ली को विकास मॉडल बनाएंगे। इससे पहले भी दिल्ली पर यातायात का दबाव घटाने के लिए मोदी सरकार ने ईस्टर्न पेरिफेरियल एक्सप्रेसवे, वेस्टर्न पेरिफेरियल एक्सप्रेसवे, दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे और दिल्ली-देहरादून एक्सप्रेसवे बनाया। दिल्ली मेट्रो रेल दिल्ली और एनसीआर में 295 किलोमीटर तक बन चुका है। चौथे चरण में इसमें 65 किलोमीटर और जुड़ जाएगा। दिल्ली मेट्रों से हर रोज यात्रा करने वालों की औसत संख्या पचास लाख से ऊपर है। यह संख्या 70 लाख भी पार कर जाती है। दिल्ली-मेरठ नमो भारत रेल कोरिडोर के बाद दिल्ली- करनाल और दिल्ली- अरवल कोरिडोर बनने वाला है। इनसे यातायात सुगम होने के साथ-साथ इस इलाके का प्रदूषण भी कम होगा।
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में यमुना की सफाई के प्रयास और गरीबों को पक्के मकान मिलने आदि का उल्लेख किया। जाहिर है कि केन्द्र से लेकर दिल्ली नगर निगम में भाजपा का ही शासन होने से दिल्ली को संवारने का दिल्ली की सरकार के पास भरपूर अवसर है। इन सभी के साथ-साथ 1985 में बनते ही दम तोड़ चुकी एनसीआर परियोजना पर नए सिरे से काम करने की जरूरत है। जिस रफ्तार से दिल्ली और एनसीआर की राजधानी की आबादी बढ़ रही है, उसमें इसे बचाने और बनाने के लिए कुछ कठोर फैसले लेने होंगे।
दिल्ली की समस्या यह है कि दिल्ली का अपना ज्यादा कुछ नहीं है। मौसम भी पड़ोसी राज्यों पर निर्भर है। इतना ही नहीं दिल्ली अपनी जरूरत के संसाधनों के लिए भी दूसरे राज्यों पर निर्भर है। 1911 में दिल्ली देश की राजधानी बनी, आज इसकी आबादी करीब ढाई करोड़ है और एनसीआर की कुल आबादी की करीब साढ़े चार करोड़ हो गई है। एनसीआर की आबादी भी मूल रूप से दिल्ली की आबादी ही है। दिल्ली से बाहर बसने वाले ज्यादातर लोग आज भी दिल्ली से ही जुड़े हुए हैं। उनमें ज्यादातर के कारोबार या नौकरी दिल्ली में ही है।
राजधानी बनने के बाद 1915 में यमुना पार के 65 गांव दिल्ली में जुड़े। तब से दिल्ली का इलाका 1483 किलोमीटर ही बना हुआ है। निकट भविष्य में इसमें बढ़ोतरी होने की संभावना नहीं दिख रही है। दिल्ली की शासन व्यवस्था कम अधिकारों वाली विधानसभा, नगर निगम, महानगर परिषद से 1993 में विधानसभा बनने तक बदलती रही। अभी भी दिल्ली केन्द्र शासित प्रदेश है और जमीन और पुलिस केन्द्र सरकार के अधीन है।
दिल्ली को विकसित करने की जिम्मेदारी दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) को दी गई। 1959 से डीडीए लगातार दिल्ली का मास्टर प्लान बनाती रही है और दिल्ली में लगातार अनधिकृत कालोनी बनती गई। आज हालात ऐसे बन गए कि इन अनधिकृत निर्माण से दिल्ली नियोजित कम और अनियोजित ज्यादा बस गई। वोट और नोट की राजनीति में राजनीतिक दल के नेता भू माफिया, पुलिस और सरकारी भ्रष्ट कर्मचारियों के सहयोगी बन गए हैं।
दिल्ली पर से आबादी का दबाव घटाने और अब बेकार मानी जाने वाली डीडीए को सहयोग देने के लिए डीडीए की तरह केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय के अधीन एनसीआर बनाने की योजना तो 1962 में ही बनी लेकिन उसका गठन 1985 में हो पाया। केन्द्रीय शहरी विकास मंत्री इसके अध्यक्ष और दिल्ली के उप राज्यपाल के अलावा उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के मुख्यमंत्री इसके सदस्य बनाए गए। एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी इसके सदस्य सचिव होते हैं। दिल्ली में एसडीएम से लेकर मुख्य सचिव के पद पर रहने वाले वरिष्ठ आईएएस अधिकारी ओमेश सहगल बोर्ड के सदस्य सचिव भी थे। सदस्य सचिव रहते हुए 1996 में उन्होंने एक मुलाकात में कहा था कि एनसीआर योजना तो फेल हो गई। योजना पर कार्यान्वयन देरी से शुरू हुआ। 1985 में बोर्ड बनने पर 2001 की आबादी को लक्ष्य मानकर 1988 में काम शुरू हुआ तब तक योजना से ज्यादा आबादी हो गई थी। एनसीआर के शहरों और दिल्ली के बीच में एक किलोमीटर का गलियारा हरियाली के लिए छोड़ना था। यानी एनसीआर बसना था दिल्ली से हट कर, वे बस गए दिल्ली से सटकर।
इतना ही नहीं दिल्ली में एक तरह से हर किसी को हर जगह अवैध निर्माण की छूट दे दी गई। जो योजनाएं पहले से बनी उसमें खामियां ही खामियां हैं। दुनिया के सबसे महंगे इलाके कनाट प्लेस में हर वर्ग के सरकारी कर्मचारियों के लिए फ्लैट बना दिए गए। यह तो मान भी लिया जाए कि गरीब लोगों को खाली जगह पर मुफ्त में सरकार आवास उपलब्ध करवाए लेकिन अमीरों की कई-कई करोड़ की एक-एक अवैध सैनिक फार्म हाऊस को भी न तोड़ा जाए, यह समझ से परे है। इतना ही नहीं, इसके लिए अदालत से संरक्षण लिया जाए तो भला दिल्ली अवैध निर्माणों से कैसे बच सकती है।
यह तो तय सा मान लिया गया है कि डीडीए अपना काम करने में विफल रही। न तो उसने ठीक से योजना बनाई और न ही दिल्ली की हजारों एकड़ जमीन की रक्षा कर पाई। कई प्रयास के बावजूद डीडीए के अधिकारी यह तक नहीं बता पाते कि उनकी कितना जमीन पर कब्जा है और कितने वे कब्जे से छुड़ा पाए हैं। डीडीए से भी बुरा हाल तो एनसीआर योजना बोर्ड का है। अब तो उसे केवल कागजों में ही मान लिया गया। 1985 में इसके गठन के समय इसे दिल्ली के 1483 के अलावा हरियाणा के छह जिलों के 13,413, उत्तर प्रदेश के चार जिलों के 10,885 और राजस्थान के 4,493 यानी 30, 240 वर्ग किलोमीटर इलाके को एनसीआर में शामिल किया गया। तब योजना थी कि 2001 में 20 लाख आबादी को इन इलाकों में भेजा जाए। इसके लिए इन सभी जगहों में दिल्ली जैसी सुविधा उपलब्ध कराई जाए। इन्हें चार क्षेत्रों में बांटा गया था। हर क्षेत्र के लिए विस्तार से योजनाएं बनाई गई थी। इन इलाकों में स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार के अवसर बढाने के साथ-साथ आवागमन सुलभ कराना प्रमुख था। केन्द्र सरकार के अनेक दफ्तर भी दिल्ली से हटाने थे। इसमें कुछ तो सफलता मिली लेकिन अनियोजित तरीके से काम होने के चलते बहुत लाभ नहीं हुआ। इसके अलावा इन राज्यों के अनेक शहरों को भी मेगनेट (चुंबक) सेंटर की तरह विकसित किया जाना था।
तब 2001 में जो आबादी होने का अनुमान लगाया गया था, योजना के शुरू होने के समय ही दिल्ली की आबादी उतनी हो गई थी। ऐसा नहीं है कि बोर्ड की पूरी कवायत बेकार हो गई। अगर दिल्ली सरकार इस पर केन्द्र सरकार से ठीक से पहल करवाए तो लक्ष्य हासिल हो पाएगा। एनसीआर के हर राज्य की जरूरत इस योजना पर ठोस काम कराने की है लेकिन सबसे ज्यादा जरूरत दिल्ली को है। इसलिए अगुवाई दिल्ली को करनी होगी। जब प्रधानमंत्री की प्राथमिकता में दिल्ली है तो यह काम आसानी से शुरू हो सकता है। इससे ही दिल्ली सुंदर बनेगी और उसका भविष्य सुरक्षित रहेगा। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री ने गांवों से पलायन रोकने के लिए गांवों को हर सुविधा से युक्त करना तय किया है। देश के ज्यादातर शहरों को बेहतर बनाने का काम तेज गति से हो रहा है। ऐसे में प्रधानमंत्री दिल्ली को विकास का मॉडल बनाना चाहते हैं तो इसका लाभ दिल्ली सरकार को उठाना चाहिए।
(लेखक, जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार हैं।)