बालेसर और इसके समीपवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में होली का पर्व धूमधाम से मनाया गया। गुरुवार की रात्रि लगभग साढ़े ग्यारह बजे से गांवों में होलिका दहन की रस्म शुरू हो गई। इस अवसर पर बड़ी संख्या में महिलाएं और पुरुष पारंपरिक परिधानों में सज-धज कर चंग की थाप पर गैर नृत्य करते हुए गांव के चौहट्टे से होलिका दहन स्थल तक पहुंचे। वहां पहुंचकर पहले से तैयार की गई होलिका का पूजन किया गया, जिसके बाद सभी ने मिलकर होलिका दहन की रिति को निभाने का कार्य किया।
इस दौरान होलिका के बीच से प्रह्लाद की मूर्ति को निकालकर पवित्र जल में डालने की परंपरा का पालन भी किया गया। इस महापर्व पर विशेष रूप से युवाओं की सक्रियता देखने को मिली, जिन्होंने गांव में नवजात शिशुओं के लिए ‘ढूंढोत्सव’ कार्यक्रम का आयोजन किया। इसमें वे घर-घर जाकर ढूंढ से संबंधित गीतों का गायन करते हैं, जो कि एक प्रकार की सामाजिक एकता और खुशी का प्रतीक है।
ग्रामीण संस्कृति में ऐसे आयोजन विशेष महत्वपूर्ण माने जाते हैं। जिले के विभिन्न गांवों में भिन्न-भिन्न प्रकार के गैर नृत्य कार्यक्रम भी आयोजित किए गए। उदाहरण के लिए, कुई जोधा गांव में होलिका दहन बहुत ही श्रद्धा भाव से मनाया गया, वहीं कनोडीया पुरोहितान गांव में गैर नृत्य के अद्भुत प्रदर्शन किए गए।
होलिका दहन की इस उत्सव के दौरान स्थानीय लोगों में हर्षोल्लास की कोई कमी नहीं थी। हर कोई इस अवसर का आनंद ले रहा था एवं एक-दूसरे के साथ मिलकर एकता का संदेश भी दे रहा था। बच्चों से लेकर बड़ों तक, सभी ने मिलकर इस त्यौहार को विशेष रूप से मनाने की कोशिश की। सजीवता और उल्लास के इस माहौल ने सभी को एकत्रित होकर इस पावन पर्व का आनंद लेने में मदद की।
इस तरह, बालेसर और उसके आस पास के गांवों में होली की शुरुआत न केवल धार्मिक मान्यता को दर्शाती है, बल्कि आपसी भाईचारे और प्रेम को भी प्रकट करती है। इस पर्व के माध्यम से लोग अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं तथा गाँव की परंपराओं का भी समर्पित भाव से पालन करते हैं। होलिका दहन की इस रस्म ने सभी के दिलों में उमंग जगाई और एकता की भावना को पुर्नजीवित किया। पूरे क्षेत्र में होली के रंगों की छटा बिखरी हुई है और यह पर्व सच्चे प्रेम और भाईचारे का प्रतीक बना हुआ है।