जब सिद्धि अर्थ के आधार पर होने लगे तो धर्म बन जाता है व्यापार : डॉ. चन्द्र प्रकाश सिंह
– बिना कामना के कोई कर्म संभव ही नहीं : डाॅ.चन्द्र प्रकाश सिंह- जानें, कब धर्म बन जाता है व्यापार
महाकुम्भ नगर, 25 फरवरी (हि.स.)। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति जब एक साथ होती है तब इसे जीवन की साधना कहते हैं। जीवन का व्यवहार कामना आधारित है। यदि मन में कोई कामना न हो तो जगत में कोई व्यवहार भी न हो। अंतःकरण विशिष्ट मानव की छोटी से छोटी क्रिया के पीछे भी कामना होती है। बिना कामना के कोई कर्म संभव ही नहीं है। यह कामना ही काम पुरुषार्थ की द्योतक है। यह बातें अरुंधति वशिष्ठ अनुसंधान पीठ के निदेशक, गम्भीर अध्येता एवं राष्ट्रवादी चिंतक डॉ.चन्द्र प्रकाश सिंह ने अपने फेसबुक के जरिए बयां की है।
उन्होंने कहा कि अब प्रश्न उठता है कि इस काम पुरुषार्थ को सिद्ध कैसे किया जाए? जगत की कामनाओं की पूर्ति के लिए अर्थ की आवश्यकता होती है। अर्थ ही काम का साधक है। अर्थ और काम का परस्पर संबंध यह है कि बिना अर्थ के काम की सिद्धि नहीं हो सकती और बिना काम के अर्थ की कोई महत्ता नहीं है। अपार अर्थ के होते हुए भी यदि मन में कोई कामना ही नहीं है तो अर्थ के होने और न होने का कोई महत्त्व नहीं है।
डॉ.चन्द्र प्रकाश सिंह की मानें तो अर्थ और काम ये दोनों लोक में मानव जीवन के व्यवहार के संचालक हैं, लेकिन क्या इनकी कोई मर्यादा है या ये असीमित और अनियंत्रित चाहे जितना और जैसे भोगे जा सकते हैं? इन्हीं प्रश्नों के समाधान में ऋषियों द्वारा मानव व्यवहार में धर्म का अनुसंधान हुआ।
अर्थ और काम का कितना भोग हो की वह मानव की मुक्ति का हेतु बने
अर्थ और काम का कितना और कैसे भोग हो जो मानव के लिए मुक्ति का हेतु बने, क्योंकि गहन चिन्तन के पश्चात् ऋषियों को यह बोध हुआ कि काम और अर्थ चाहे जैसे हों लेकिन अंततः वे मानव के बंधन के हेतु हैं। मानव कामनाओं से बंधा हुआ है। वह उन्हीं के पीछे भागता रहता है, परन्तु निरन्तर भोग से कामनाएं शान्त नहीं होतीं और बढ़ती ही जाती हैं। वह इनकी पूर्ति के लिए अर्थोपार्जन के पीछे अनियंत्रित दौड़ता रहता है।
जानें, कौन है मोक्ष के अधिकारी
उन्होंने बताया कि धर्म, अर्थ और काम के उपार्जन और भोग का वह संतुलन है जो उसे उसके अनियंत्रित बंधन से मुक्त करता है। काम ही दुःख का कारण है और काम का ऐसा भोग जिससे उसकी अनियंत्रित इच्छा का लय हो जाए वही मोक्ष है। जितनी इच्छाएं कम होती जाती हैं जीवन में आनन्द की उतनी ही सहज वृद्धि होती जाती है और जो सभी कामनाओं से मुक्त हो जाता है वही मोक्ष का अधिकारी है। यही अमृत की प्राप्ति है। धर्म के द्वारा अमृतत्व के प्राप्ति का प्रयास यानी काम और अर्थ को मर्यादित करना है।
जानें, धर्माचार और धर्माडम्बर क्या हैजब सिद्धि अर्थ के आधार पर होने लगे तो धर्म बन जाता है व्यापार
जगत में धर्म के व्यवहार में अर्थ धर्म द्वारा मर्यादित होता है, लेकिन जब अर्थ धर्म को मर्यादित करने लगे अर्थात् धर्म को ही अर्थोपार्जन का हेतु बना दिया जाए तब वह धर्माचार नहीं होता, बल्कि धर्माडम्बर होता है। यह धर्म का विभ्रम है। जिसका मुख्य उद्देश्य अर्थ बन जाए और अर्थ के अनुसार धर्म को चलने के लिए विवश कर दिया जाए अर्थात् किसी धार्मिक अवसर की प्रासंगिकता की सिद्धि उससे अधिक से अधिक प्राप्त होने वाले अर्थ के आधार पर होने लगे तब यह धर्म नहीं बल्कि धर्म के आवरण में व्यापार होता है।