उज्जैन: हजारों साल पुरानी परंपरा के अनुसार महाकालेश्वर मंदिर में सोम यज्ञ चार मई से

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उज्जैन, 2 मई (हि.स.)। महाकालेश्वर मंदिर प्रबंध समिति द्वारा पूर्व में समय-समय पर उत्तम जलवृष्टि के लिए पर्जन्य अनुष्ठान के आयोजन किये गये हैं। इसी तारतम्य में जन कल्याण के लिए सौमिक सुवृष्टि अग्निष्टोम सोमयज्ञ का आयोजन महाकालेश्वर मंदिर प्रबंध समिति द्वारा 4 मई से 9 मई 2024 तक महाकालेश्वर मंदिर परिक्षेत्र में किया जाना निर्धारित किया गया है। महाकालेश्वर मंदिर प्रबंध समिति यह सोमयज्ञ जनकल्याण की भावना से कर रही है। महाकालेश्वर मंदिर प्रबंध समिति के पूर्व यह सोमयज्ञ सोमनाथ ज्योतिर्लिंग व ओमकारेश्वर-ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग में किया गया है।

यह सोमयज्ञ सभी ज्योतिर्लिंगों पर किये जाने की योजना

उक्त सोमयज्ञ महाराष्ट्र के जिला सोलापुर के कासारवाडी तालुका बर्शी के मुर्धन्य विद्वान पं. चैतन्य नारायण काले के मार्गदर्शन में किया जा रहा है। पं. चैतन्य नारायण काले ने बताया कि इस सोमयज्ञ के ऋत्विक गण ब्राह्यण वेदाध्ययन सहित विशिष्ट श्रौत यज्ञों में प्रशिक्षित प्राविण्य प्राप्त होना संकल्पपूर्ति कामनापूर्ति के लिये अत्यावश्यक है। अगर ऋत्विक भी नित्य अग्निहोत्री अग्नि उपासक हो तो यज्ञ का फल द्विगुणित प्राप्त होता है।

पं. काले ने बताया कि सोमयज्ञ में चारों वेदो के श्रौत विद्वानों के चार-चार के समूह में सोलह ऋत्विक (ब्राहम्ण) होते है। हर ऋत्विक का कार्य व कर्म सुनिश्चित होता है, उन्हें देवता के रूप में मन्त्र वरण होता है, क्योकिं यह सोमयज्ञ पहले देवता ही ऋत्विक कर्म करते थे, उनका उन्ही स्थान में यह मनुष्य रूप में देववरण होता है।

इस तरह इस सोमयज्ञ में 16 ऋत्विक के साथ एक अग्निहोत्री दीक्षित दम्पत्ति यजमान के रूप में समाज के प्रतिनिधि स्वरूप सम्मिलित होती है। शास्त्रों में वर्णित है कि, सोमयाग में अग्निहोत्री दीक्षित व्यक्ति ही यजमान के रूप में सम्मिलित हो सकते हैं।

जिस स्थल पर सोमयज्ञ किया जाता है उस स्थान को विहार के रूप में संबोधित किया जाता है। महाराष्ट्र से सोमयज्ञ के लिए आये विद्वावानों के मार्गदर्शन में याग विहार में अलग-अलग मण्डप बनाये गये है। जिनका नाम क्रमशः प्राग्वंश, हविर्धान, आग्निध्रीय, सदोमंडपम्, प्रधान यज्ञवेदी (उत्तरवेदी), चारो दिशाओं में पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर द्वार के साथ विभिन्न कुण्डों का ईटों, पीली मिट्टी व गाय के गोबर से निर्माण किया गया है। जिसमें गारहपथ्य, अंतराल, वेदी, दक्षिणाग्नि, आहवनीय, सप्तहोत्र, धीष्णीय, मार्जलीय, गृहसाधन, चात्वाल, शामित्र, उत्कर, अग्नीध्र मण्डप और अग्नीधीषणीय (अग्नि का मुख्य स्थान) आदि निर्माण किया गया है।

हवि के रूप में सोमवल्ली (सोमरस) का उपयोग

5000 वर्ष प्राचीन पद्धति से होने वाले इस सोमयज्ञ में महत्वपूर्ण सामग्री के रूप में उपयोग होने वाली वनस्पति सोमवल्ली जिसका सोमयाग में रस निकाल कर हवि रूप में प्रयोग होता है। सोमवल्ली का चन्द्र कला के प्रभाव में घटना बढना निर्धारित होता है। धरा पर यह सोमवल्ली देवलोक दिव्यलोक से आने के बात वेदों ने कही है। इसी वनस्पति सोमवल्ली के नाम पर इस याग का नाम सोमयाग है।

शास्त्रों वर्णन अनुसार वसंत ऋतु में सोमयज्ञ का आयोजन किया जा रहा है इसमें प्रयुक्त होने वाली वनस्पति सोमवल्ली सुर्दु पहाड़ो पर पायी जाती है। वैदिक मंत्रोच्चार के साथ वनस्पति को वनों-पर्वतों से एकत्र किया जाता है। सोमयाग के विहार स्थल पर बैलगाडी के नीचे इसको कूटकर रस निकाला जाता है इसी रस को सोमरस कहा जाता है जिसका सोमयाग में हवि के रूप में प्रयोग किया जाता है।

प्रवर्ग का महत्व

सोमयज्ञ में प्रवर्ग्य नाम की विधि होती है, इस प्रवर्ग्य को आदित्य स्वरूप माना गया है। इस प्रवर्ग्य विधि में महावीर पात्र नामक मिट्टी के पात्र में शुद्ध देसी गाय का घी उबाल कर उसमें गाय और बकरी का ताजा दूध निकाल कर आहुति दी जाती है। उसमें से एक अत्यंत तेजस्वी अग्नि ज्योत अग्निस्तंभ के रूप में प्रकट होती है, यह एक सनातन वैदिक सोमयज्ञों में धरा को आदित्य से दिव्यता को जोडने की वैज्ञानिक प्रक्रिया मानी जाती है। सम्पूर्ण सोमयाग के दौरान एक गाय बछडे व बकरी सम्पूर्ण सोमयज्ञ के दौरान विहार मण्डप के समीप ही रहेगी।

सोमयज्ञ की विस्तृत जानकारी

सोमयज्ञ मूलतः 7 प्रकार के होते है। इनका उद्देश्य वातावरण में शुद्धि उत्पन्न कर प्राणवायु को शुद्ध करना हैं। इनका अलग-अलग महत्व है। सोमयज्ञ के अंतर्गत भी कई प्रकार के याग है। याग चाहे जितने प्रकार के हों, सबकी उत्पत्ति अग्निष्टोम से ही है। इसीलिए विभिन्न प्रकार का अग्निष्टोम-यज्ञ विशेष-विशेष नाम से पुकारा जाता है।