(बॉलीवुड के अनकहे किस्से) तूती बोल चुकी है फिल्म इंडिया पत्रिका की

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अजय कुमार शर्मा

1940 और 50 के दशक में “फिल्म इंडिया” प्रमुख फिल्म पत्रिका होती थी। उसके संपादक तथा प्रमुख संचालक बाबूलाल पटेल की फिल्म उद्योग में तूती बोलती थी। उनके इशारे पर बड़े-बड़े निर्माता- निर्देशक नाचा करते थे। अंग्रेजी में प्रत्येक माह निकलने वाली “फिल्म इंडिया” में अपना फोटो देखने के लिए छोटे-बड़े सब कलाकार लालायित रहते थे। उनकी लिखी समीक्षा से फिल्म हिट और फ्लॉप हुआ करती थी। कहा जाता था कि वे पत्रिका में लिखे एक-एक शब्द की कीमत वसूलते थे। उनका शानदार दफ्तर फोर्ट में था। एक बहुत बड़ी टेबल के पीछे रिवाल्विंग चेयर पर छोटे कद के गोरे चिट्टे, गोल-मटोल बाबू राव पटेल शान से बैठते थे। शरारती और तेज आंखों से घूरने वाले पटेल की उम्र उस समय 36 वर्ष थी। बाबूराव में पत्रकारों, संवाददाताओं के सारे गुण अवगुण मौजूद थे, जैसे;- उनकी पैनी आंखे, तेज कान, मतलब की यारी आदि। बाबूराव महाराष्ट्रीयन थे, बंजारा जाति के थे। मैट्रिक पास नहीं की थी। पर मिशन के किसी पादरी प्राध्यापक के साथ अंग्रेजी साहित्य का निजी तौर पर काफी अध्ययन कर चुके थे। “साला” के अतिरिक्त भी कई गालियां देने वाले अश्लील शब्दों का प्रयोग वे हमेशा सबके लिए खुलकर करते थे। वे खुलेआम कहते थे कि कोई कितनी भी अच्छी फिल्म बना ले लेकिन अगर “फिल्म इंडिया” में उसका विज्ञापन नहीं छपेगा तो देश में किसी को भी कुछ पता नहीं चलेगा। एक पृष्ठ के विज्ञापन की कीमत उन दिनों 200 रुपये हुआ करती थी जो अन्य दूसरी पत्रिकाओं के मुकाबले 10 गुना थी। फिर भी विज्ञापन देने वालों की लाइन लगी रहती। उस समय की लगभग सभी अभिनेत्रियों से पटेल के अंतरंग संबंधों की चर्चा रहती थी। “फिल्म इंडिया” के कवर पर हर बार किसी हीरोइन का विशेष रंगीन चित्र प्रकाशित किया जाता था। बाबूराव पटेल ने इस पत्रिका से काफी धन कमाया और बांद्रा में पाली हिल के ऊपर एक प्लॉट खरीद कर उन्होंने 1952 में आलीशान दो मंजिला मकान बनवाया और उसका नाम “गिरनार” रखा।

1954 में बाबूराव पटेल की पत्रिका की बिक्री काफी गिर गई थी और वह कम आमदनी से परेशान होने लगे थे और पत्रिका का नाम बदल देने की सोच रहे थे। दो-तीन वर्ष पहले “फिल्म इंडिया” भारत की श्रेष्ठ फिल्म पत्रिका थी और बाबूराव के घमंड का कोई ठिकाना न था। इसी घमंड के नशे में बाबूराव ने एक पार्टी में सबके सामने जे.सी. जैन (जो उन दिनों बैनेट कोलमैन के मैनेजिंग डायरेक्टर बनकर नए-नए आए थे और आते ही उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया पब्लिकेशन से “फिल्म फेयर” नामक पत्रिका निकाली थी) से कह बैठे कि सुन ले मारवाड़ी मेरे मुकाबले साले तूने फिल्म मैगजीन निकाली है सालभर के अंदर तेरी मैगजीन बंद न करवा दूं तो मेरा नाम बाबूराव पटेल नहीं। जैन ने खिलखिला कर अपनी पतली आवाज में उत्तर दिया था, इतना घमंड मत कर साले, मैं भी देखूंगा किसकी पत्रिका बंद होती है। किस्मत बदलते देर नहीं लगी और “फिल्म फेयर” तेजी से चल निकली और “फिल्म इंडिया” बैठ गया। पटेल ने पत्रिका का नाम बदल कर “मदर इंडिया” कर उसे राजनीतिक पत्रिका बना दिया पर फिर भी बात न बनी और एक दिन चोटी पर विराजमान रही यह पत्रिका काल के गर्त में समा गई।

चलते चलतेः बाबूराव पटेल और उनकी पत्नी सुशीला रानी दोनों के पास डॉक्टर की डिग्री थी और दोनों पति पत्नी होम्योपैथी का असाधारण ज्ञान रखते थे। बाद के दिनों में बाबूराव पटेल के निवास स्थान गिरनार में प्रत्येक रविवार को मरीजों की भारी भीड़ लगती थी और दोनों दंपति सभी को मुफ्त दवाई देते थे।

(लेखक- राष्ट्रीय साहित्य संस्थान के सहायक संपादक हैं। नब्बे के दशक में खोजपूर्ण पत्रकारिता के लिए ख्यातिलब्ध रही प्रतिष्ठित पहली हिंदी वीडियो पत्रिका कालचक्र से संबद्ध रहे हैं। साहित्य, संस्कृति और सिनेमा पर पैनी नजर रखते हैं।)