कैसे बने निर्देशक कैमरामैन राधू करमाकर

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अजय कुमार शर्मा

फिल्म ‘जागते रहो’ (1956) में छोटी भूमिका में अंतिम बार आने के बाद जब नर्गिस ने आरके स्टूडियो छोड़ दिया तो राजकपूर बुरी तरह टूट गए। ‘आग’ फिल्म के बाद से ही नर्गिस उनकी प्रेरणा बन गई थीं । वह स्वीकार ही नहीं कर पा रहे थे कि नर्गिस ने उन्हें हमेशा के लिए छोड़ दिया है। राजकपूर नायक के रूप में बाहर की फिल्में लेने लगे ताकि नर्गिस को भूल सकें और आरके फिल्म का बैनर भी बचा रहे । लेकिन 1959 के आते आते आरके फिल्म के हालात काफी बिगड़ गए। अब एक फिल्म तुरंत बनाई जानी थी ताकि यह कलंक धुल सके कि नर्गिस के चले जाने के बाद आर के स्टूडियो खत्म हो गया है और अब राजकपूर फिल्म नहीं बना सकते हैं।

इसी समय अर्जुन देव रश्क एक भोले-भाले व्यक्ति पर केंद्रित एक सशक्त पटकथा लेकर आए जिसके पास डाकुओं को सुधारने का एक अनोखा विचार था। ‘जिस देश में गंगा बहती है’ नामक इस फिल्म की कहानी और पटकथा दोनों ही बहुत शानदार थे। राजकपूर इस पर मुग्ध हो गए। लेकिन अभी राजकपूर स्वयं निर्देशन की बात सोच भी नहीं पा रहे थे। इस बीच दिलीप कुमार ने भी डाकुओं पर केंद्रित ग्रामीण पृष्ठ भूमि की एक फिल्म ‘गंगा जमुना’ टेक्निकलर (रंगीन) बनाने का फैसला किया। इसके निर्देशक नितिन बोस थे। उन्होंने आरके फिल्म के नियमित कैमरामैन राधू करमाकर से इस टेक्निकलर फिल्म करने का अनुरोध किया। आरके फिल्म की खराब आर्थिक स्थिति देखते हुए उन्हें यह प्रस्ताव ठीक लगा।

आरके फिल्म की ‘आवारा’ फिल्म से वे उनकी टीम के विश्वस्त कैमरामैन थे और राजकपूर उन पर बहुत भरोसा करते थे। यह बात जब राजकपूर को पता चली तो उन्होंने बहुत चतुराई से ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के निर्देशन का प्रस्ताव राधू करमाकर के सामने रखा। साथ में आरके फिल्म की तंगहाली और उसकी टीम को उनकी जरूरत का भी एहसास कराया। ऐसी स्थिति में राधू करमाकर मना नहीं कर पाए और इस तरह ‘जिस देश में गंगा बहती है’ का निर्देशन उन्होंने स्वीकार कर लिया ।

साल 1959 में यह फिल्म रिलीज हुई और गजब की हिट रही । संगीत निर्देशक शंकर-जयकिशन की जोड़ी का मानना था कि फिल्म की कहानी बहुत अच्छी नहीं है और इसमें संगीत के लिए गुंजाइश नहीं है। फिर भी इसका संगीत लाजवाब रहा। शंकर-जयकिशन की सर्जनात्मकता इसमें अपने सर्वोच्च ग्रुप में प्रकट हुई। फिल्म में 13 गाने थे और हर एक सुपरहिट रहा। आरके स्टूडियो में एक बार फिर से जीवन का संचार हो गया और उसकी खुशहाली फिर लौट आई।

चलते चलते

फिल्म की सफलता के बाद कहा जाने लगा कि फिल्म तो राजकपूर ने ही निर्देशित की थी। ऐसा ही ‘साहब बीबी और गुलाम’ के निर्देशक अबरार अल्वी के लिए कहा गया की फिल्म तो गुरुदत्त ने ही निर्देशित की और ‘गंगा जमुना’ का निर्देशन भी नितिन बोस के स्थान पर दिलीप कुमार ने किया था। इसका जवाब राधू करमाकर ने अपनी आत्मकथा में किया है। उन्होंने लिखा कि यदि यह तीनों फिल्में असफल हो गई होतीं तो कोई भी राजकपूर, गुरुदत्त और दिलीप कुमार का नाम निर्देशक के रूप में नहीं लेता । सच है कि सफलता के सैकड़ों दावेदार लेकिन असफलता का कोई एक…।

(लेखक- राष्ट्रीय साहित्य संस्थान के सहायक संपादक हैं। नब्बे के दशक में खोजपूर्ण पत्रकारिता के लिए ख्यातिलब्ध रही प्रतिष्ठित पहली हिंदी वीडियो पत्रिका कालचक्र से संबद्ध रहे हैं। साहित्य, संस्कृति और सिनेमा पर पैनी नजर रखते हैं।)