नई दिल्ली, मेरे 40 साल के अनुभव में यही सामने आया है कि जिसका जो काम है, वह संविधान ने उसे बता रखा है। किसी भी प्रजातंत्र की आदर्श स्थिति वही होती है कि जब सभी अंग एक-दूसरे का सम्मान करें। यह कोई नाक की लड़ाई नहीं है। संविधान सबसे बड़ा है, इसे साबित करने की कोई बात भी नहीं है। अब संविधान के तहत कोई कानून बना है तो आवश्यकता के अनुसार उसे बदला जा सकता है। अगर दोपहिया वाहन चालक के लिए हेलमेट पहनना जरूरी है तो सिख धर्म के लोग अपने धार्मिक कानून का हवाला देकर हेलमेट पहनने के नियम से खुद को बाहर करने की मांग कर सकते हैं।
अब ऐसी स्थिति में अदालत उनके सम्मान में बदलाव करने का आदेश दे सकती है, लेकिन अगर यह कहा जाए कि अदालत के आदेश पर कानून बनेगा तो ऐसा कतई संभव नहीं है। यहां मैं साफ कर देना चाहता हूं कि यह सरकार पर निर्भर करता है कि अदालत के किस आदेश पर कानून बनाना है और किस पर नहीं बनाना है। अब ऐसे में टकराव की स्थिति पैदा होना संभव है।
लोकतंत्र के तीनों अंगों में टकराव न हो इसके लिए एक व्यवस्था हमेशा से चली आ रही है। सभी को अपना-अपना काम करना चाहिए और दूसरे के काम में दखल नहीं देना चाहिए। जहां तक हम बात करें संविधान में संशोधन की, तो फिलहाल ऐसी कोई स्थिति नहीं है। जब भी किसी बदलाव की मांग उठती है तो उस पर गहनता से चर्चा होती है। सरकार अकेले संशोधन नहीं कर सकती। चूंकि दो तिहाई बहुमत चाहिए होता है तो विपक्ष को विश्वास में लेना पड़ता है। संविधान में तीन तरह से बदलाव होते हैं। एडिशन, वैरिएशन और रिवील। संविधान में भले ही एक शब्द जोड़ा जाए तो वह एडिशन कहलाता है, एक शब्द बदलना हो तो वैरिएशन और एक भी शब्द हटाना हो तो यह रिवील कहलाता है। पिछले 70 सालों में 100 से ज्यादा बदलाव किए गए हैं।