लखनऊ। जितिन प्रसाद ने भी कांग्रेस का दामन छोड़कर उस संघ परिवार के अनुषांगिक संगठन भाजपा का दामन थाम लिया, जिससे कभी उनके पिता जितेंद्र प्रसाद यानी बाबा साहब और दूसरे पूर्वज लड़ते रहे हैं। जितिन प्रसाद का एकाएक ऐसे मौके पर भाजपा में शामिल होना जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केंद्रीय नेतृत्व के बीच घमासान जगजाहिर हो चुका है, सिर्फ चौंकाता ही नहीं है बल्कि यह संकेत भी देता है कि प्रसाद को लाकर भाजपा के केंद्रीय रणनीतिकारों ने एक ऐसा दांव खेला है जिससे एक तरफ कांग्रेस और उसके प्रथम परिवार की ताकत घटी है तो भाजपा के भीतर योगी खेमा भी बैकफुट पर आ गया है।
भाजपा के ऑपरेशन जितिन ने एक तरफ तो कांग्रेस और सोनिया राहुल प्रियंका को चोट दी है, तो दूसरी तरफ पार्टी के भीतर ही बगावती मूड में चल रहे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इस कदर असहज किया कि अगले दिन ही यानी गुरुवार की दोपहर योगी आदित्यनाथ को अचानक दिल्ली आकर गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक जाने को मजबूर होना पड़ा है।
जितिन कार्ड ने योगी को क्यों असहज किया है इसका सबसे बड़ा संकेत है कि बुधवार को दिल्ली में जब जितिन प्रसाद को भाजपा में शामिल किया गया तो उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह या प्रदेश भाजपा का कोई भी अन्य पदाधिकारी उस संवाददाता सम्मेलन में मंच पर मौजूद नहीं था। जबकि आमतौर पर जब भी किसी प्रदेश का कोई बड़ा नेता अगर दिल्ली में पार्टी में शामिल होता है तो केंद्रीय नेताओं के साथ उस प्रदेश के अध्यक्ष या कोई अन्य वरिष्ठ पदाधिकारी जरूर मंच पर मौजूद रहते हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने पर मध्यप्रदेश के भाजपा नेता और प. बंगाल के नेताओं के भाजपा में आने पर प. बंगाल भाजपा के अध्यश्र दिलीप घोष और अन्य नेता मौजूद रहते रहे हैं।
इससे साफ संकेत है कि जितिन प्रसाद को भाजपा में लिए जाने का फैसला मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष की जानकारी के बिना किया गया। क्योंकि जितिन प्रसाद पिछले दो तीन सालों से उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के खिलाफ ब्राह्मणों के उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए लगातार प्रदेश भर के ब्राह्मणों को भाजपा के खिलाफ गोलबंद करने में जुटे थे। उन्होंने ब्राह्मण चेतना परिषद बनाकर सोशल मीडिया के जरिए प्रदेश के सभी जिलों के ब्राह्मण नेताओं को पत्र भेजकर ब्राह्मणों की कथित उपेक्षा उत्पीड़न और हत्याओं के खिलाफ एकजुट होकर सरकार का विरोध करने का आह्वान किया था। इसलिए अगर योगी को उनके भाजपा में आने की जानकारी होती तो उनके विरोध की आशंका थी। इसलिए योगी और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष को बिना जानकारी दिए भाजपा ने ऑपरेशन जितिन को अंजाम दिया। इससे योगी असहज हुए। अब उन्हीं जितिन को उन्हें अपने साथ रखना होगा जिससे पार्टी ब्राह्मणों को एकजुट करने में उनका उपयोग कर सके। मुमकिन है कि केंद्रीय नेतृत्व जितिन को सरकार में मंत्री बनाना चाहे तो जहर का घूंट पीकर योगी को उसे स्वीकार करना होगा।
जितिन प्रसाद ने भाजपा में शामिल होने के बाद वही बोला जो आमतौर पर ऐसे मौकों पर बोला जाता है यानी उन्होंने कहा कि आज देश में भाजपा ही एकमात्र संस्थागत दल बचा है, बाकी सारे दल व्यक्तियों के इर्द गिर्द केंद्रित हैं। साथ ही उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भाजपाई शैली में यशस्वी विशेषण के साथ संबोधित करते हुए कहा कि वह बहुत अच्छा काम कर रहे हैं और देश को आगे ले जा रहे हैं। अभी जितिन प्रसाद ही भाजपा में गए हैं, लेकिन अपनी आक्रामक चुनावी रणनीति के लिए मशहूर भाजपा की योजना अगर फलीभूत हो गई तो कांग्रेस के कुछ और नेता, जो अपने सियासी भविष्य औऱ नेतृत्व की अक्षमता को लेकर परेशान हैं भी कांग्रेस का हाथ छोड़कर भाजपा का कमल पकड़ सकते हैं। इनमें पूर्वांचल के एक पूर्व सासंद, जितिन के ही साथ सरकार और संगठन में रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री और एक पुराने राजनीतिक परिवार के वारिस के नाम भी लिए जा रहे हैं।
अब बात कांग्रेस की। जितिन से पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने पूरे सियासी कुनबे के साथ भाजपा में शामिल होकर मध्यप्रदेश में 15 साल बाद आई उस कांग्रेस सरकार को गिरा चुके हैं जिसे बनाने में उन्होंने भी खून पसीना एक किया था। एक-एक करके कांग्रेस के कई प्रमुख नेता या तो दूसरे दलों में जा रहे हैं या फिर निष्क्रिय होकर घर बैठ गए हैं, लेकिन अपने दरबारियों और चापलूसों से घिरे कांग्रेस के प्रथम परिवार जो संयोगवश या दुर्भाग्यवश इस समय कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व का पर्याय भी है, को अपने राजमहल से बाहर झांकने की फुर्सत नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी उम्र और सेहत के दबाव में अशक्त हो चली हैं, जबकि पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और महासचिव प्रियंका गांधी के बीच कौन ज्यादा ट्विटर करे इसकी अघोषित प्रतियोगिता चल रही है। संगठन की सारी सत्ता और शक्तियों का केंद्रीयकरण इस कदर है कि जिला कमेटियों तक का फैसला दिल्ली से ही होता है और उसमें जमीनी नेताओं की नहीं चापलूस दरबारियों और उन वेतनभोगी कर्मचारियों की सुनी जाती है जो नेतृत्व को सिर्फ वही तस्वीर दिखाते हैं जो वह देखना चाहता है।
चुनावी मौसम में सियासी दलों में नेताओं का इधर से उधर होना कोई नई बात नहीं है। लेकिन 2014 लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की हार के बाद जिस तरह उन दिग्गज नेताओं का कांग्रेस से बाहर जाना हुआ जिन्हें अपने अपने राज्यों और इलाकों में कांग्रेस का पर्याय और चेहरा माना जाता था। इनमें कई नाम ऐसे हैं जो नेहरू गांधी परिवार के वफादारों में गिने जाते थे। हरियाणा में वीरेंद्र सिंह, अशोक तंवर, रणजीत सिंह, कर्नाटक में एसएम कृष्णा, असम में हेमंत विश्वसर्मा, उत्तराखंड में विजय बहुगुणा, सतपाल महाराज, मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थक, महाराष्ट्र में नारायण राणे, प्रियंका चतुर्वेदी, विखे पाटिल, कर्नाटक में रोशन बेग, गुजरात में शंकर सिंह बाघेला, अल्पेश ठाकोर, केरल में टॉम वडक्कन जैसे कई नेता शामिल हैं।
इनके अलावा कई जाने माने नेता ऐसे हैं जिन्हें नेतृत्व ने अकारण घर बिठा दिया है या घर बैठने को मजबूर कर दिया। वरिष्ठ नेता जनार्दन द्विवेदी हों या नेहरू गांधी परिवार के वफादार सुरेश पचौरी या बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से पार्टी संगठन में सचिव पद तक पहुंचे जमीनी नेता हरिकेश बहादुर हों या कभी संजय गांधी और राजीव गांधी की टीम के और पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण सिंह मुन्ना हो या फिर पार्टी छोड़ने को मजबूर कर दिए गए पूर्व महासचिव सत्यव्रत चतुर्वेदी, पार्टी इन्हें करीब-करीब भूल चुकी है और इनकी योग्यता, क्षमता और अनुभव का कोई लाभ नहीं ले रही है।
अगर उत्तर प्रदेश की बात करें तो प्रियंका गांधी के कार्यभार संभालने और लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बाद अजय कुमार लल्लू को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया तो उनकी नियुक्ति को लेकर महज एक बैठक करने वाले रामकृष्ण द्विवेदी, सत्यदेव त्रिपाठी, भूधर नारायण मिश्र, डा. संतोष कुमार सिंह, नेकचंद पांडे जैसे करीब एक दर्जन से ज्यादा उन पुराने निष्ठावान कांग्रेसियों को पार्टी से बाहर कर दिया गया जो लगातार प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में लाने की वकालत करते नहीं थकते थे। काफी समझाने बुझाने के बाद किसी तरह बुजुर्ग रामकृष्ण द्विवेदी की पार्टी में वापसी तो हो गई लेकिन उसके कुछ ही समय बाद उनका निधन हो गया। बाकी नेता आज भी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की वापसी का सपना संजोए पार्टी से बाहर बैठे हैं।
जो कांग्रेस छोड़कर जा चुके हैं, उनके अलावा कई ऐसे भी हैं जो मौके की तलाश में हैं या अभी असमंजस में हैं। सचिन पायलट हालांकि बार-बार यह कहते रहे हैं कि वह भाजपा में नहीं जाएंगे, लेकिन जब वह अपनी बगावत खत्म करके वापस आए थे तब उनसे जो वादे नेतृत्व ने किए थे उनमें से एक भी अभी तक पूरा न होने की वजह से उनके और उनके समर्थकों के मन में भी क्षोभ है और यह क्षोभ कब विद्रोह में बदल जाए कोई नहीं बता सकता। मिलिंद देवड़ा, संजय निरूपम, संजय झा, संदीप दीक्षित जैसे कई नाम इस श्रेणी के हैं।
एक-एक करके विकेट गिर रहे हैं लेकिन कांग्रेस नेतृत्व के कानों पर जूं नहीं रेंग रही है। नेतृत्व के निकटवर्ती सूत्रों से जब इस बारे में बात की जाती है तो एक ही जवाब मिलता है कि कांग्रेस बहुत बड़ा जहाज है और इसमें लोग आते-जाते रहते हैं। साथ ही बड़े अहंकार से यह भी कहा जाता है कि आखिर नई कांग्रेस तब ही बनेगी जब पार्टी का पुराना कचरा साफ होगा। इसकी एक बानगी कांग्रेस की राज्य इकाईयों की प्रतिक्रिया में देखी जा सकती है जो जितिन प्रसाद के भाजपा में शामिल होने को लेकर आई है। मध्यप्रदेश कांग्रेस ने ट्वीट करके कहा कि कूड़ा कूड़ेदान में गया। इसी तरह छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस ने ट्वीट करके जितिन प्रसाद के कांग्रेस से भाजपा में जाने का शुक्रिया अदा किया। इन प्रतिक्रियाओं से साफ है कि पार्टी नेतृत्व अपने नेताओं के लगातार कांग्रेस छोड़ने से कोई सबक सीखने का इच्छुक नहीं है क्योंकि प्रदेश संगठनों की ये प्रतिक्रियाएं बिना केंद्रीय नेतृत्व की सहमति के नहीं आ सकती हैं। पार्टी छोड़ने वाले सिंधिया, जितिन प्रसाद, अशोक तंवर और पार्टी में अलग तरह का सुर बोलने वाले सचिन पायलट, मिलिंद देवड़ा, संजय निरुपम, संदीप दीक्षित जैसे नेताओं को कभी टीम राहुल का सबसे अहम चेहरा माना जाता था। माना जाता था कि यही नेता राहुल गांधी की कांग्रेस में पार्टी अध्यक्ष के नौरत्न होंगे। ये वो युवा चेहरे हैं जो कांग्रेस को नया रूप रंग तेवर देकर उसे राजीव सोनिया और कुछ इंदिरा गांधी के जमाने के बुजुर्ग हो रहे नेताओं से मुक्त करेंगे।
लेकिन बिडंबना है कि टीम राहुल माने जाने वाले चेहरे ही या तो पार्टी छोड़कर जा रहे हैं या फिर पार्टी के भीतर रहते हुए अनमने हैं। जबकि टीम सोनिया कहे जाने वाले पुराने नेताओं में भले ही नेतृत्व की कार्यशैली को लेकर कुछ किंतु परंतु हो लेकिन उनमें से वीरेंद्र सिंह और एसएम कृष्णा जैसे अपवादों को छोड़कर सब पार्टी में ही हैं और उनके कहीं जाने की चर्चा भी नहीं है। इसे क्या माना जाए युवा नेताओं की अवसरवादी महत्वाकांक्षा और विचारधारा के प्रति निष्ठा का अभाव और बुजुर्ग नेताओं की विचार और पार्टी के प्रति वफादारी। या फिर बुजुर्ग नेताओं के दबाव से युवा नेताओं के भीतर घुटन और बुजुर्गों को उम्र के इस पड़ाव में कोई विकल्प न मिलने की मजबूरी।
सिंधिया और जितिन जैसे युवा नेताओं ने भले ही कांग्रेस छोड़कर अपने निजी हित सुरक्षित कर लिए हों लेकिन उन्होंने कांग्रेस और उसकी विचारधारा का बहुत बड़ा नुकसान किया है। कांग्रेस के वे कार्यकर्ता और नेता जिन्होंने पूरी निष्ठा से पार्टी में काम किया लेकिन उन्हें कभी कुछ भी ज्यादा नहीं मिला, कहते हैं कि सिंधिया, जितिन, सचिन, मिलिंद, अशोक तंवर जैसे युवा नेताओं को उनकी उम्र और अनुभव से कहीं ज्यादा पार्टी ने संगठन और सरकार में सब कुछ दिया। फिर भी अगर वो संतुष्ठ नहीं है तो फिर कहीं भी संतुष्ट नहीं रह सकते। यही तर्क कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता भी देते हैं कि जो छोड़कर गए हैं उन्हें पार्टी ने सब कुछ और जरूरत से ज्यादा दिया। तब सवाल उठता है कि क्या पार्टी नेतृत्व ने गलत लोगों पर कृपा की और निष्ठावानों की जो उपेक्षा हुई ये उसकी सजा है।