इस जानवर सें किया वैक्सीन का ट्रायल

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इंसानी सेहत और बीमारियों की जानकारी जुटाने में सदियों से जानवरों का इस्तेमाल होता रहा. कई प्रमाण बताते हैं कि 350 ईसा पूर्व सबसे पहले जो मेडिकल प्रयोग हुआ था, वो सुअरों पर हुआ. बाद में 19वीं सदी की शुरुआत के साथ वैक्सीन बनाने की कोशिश होने लगी. इसमें खुलकर जानवरों का इस्तेमाल हुआ. अब बहुत तरह की वैक्सीन से हर साल लगभग 2.5 मिलियन लोगों की जान बचती है. इसमें बड़ा योगदान जानवरों का है. टीकाकरण से पहले ट्रायल के दौरान घोड़ों का उपयोग होता रहा. खासकर बड़ी उम्र के लोगों के लिए जो टीके होते हैं,

उन्हें घोड़ों पर आजमाया जाता है. इसकी वजह ये है कि घोड़ों की उम्र लंबी होती है. वैसे घोड़ों पर टीकों का इस्तेमाल सीमित तरीके से होता है लेकिन इसके कारण काफी सारी जानकारी मिल सकी. जैसे इंफ्लूएंजा के लिए वैक्सीन बनाते हुए घोड़ों पर ट्रायल से पता चला कि वैक्सीन को कितने तापमान पर रखने से वो ज्यादा समय तक सेफ रहेगी.

गिनी पिग का नाम तो हम यहां-वहां अक्सर सुनते आए हैं. इसका उपयोग दशकों से किसी वैक्सीन या फिर दवा के ट्रायल में भी होता आया है. खासतौर पर बैक्टीरिया के कारण होने वाले संक्रमण की दवा या टीका बनाने में गिनी पिग का सबसे ज्यादा उपयोग हुआ. वेबसाइट वर्ल्डएटलस के मुताबिक साल 1980 में इबोला के शुरुआती रूप के लिए वैक्सीन बनाने की कोशिश में भी गिनी पिग काम आया था. हालांकि प्रयोग उतना सफल नहीं हो सका.

बंदर हमारे लिए टीका तैयार करने में एक अहम हिस्सा रहे हैं. वैक्सीन की जांच से लेकर उसके उत्पादन में भी बंदरों का उपयोग होता है. वायरस से होने वाली बीमारियों में ये पशु ज्यादा काम आते हैं क्योंकि इनके शरीर में नेचुरल तौर पर वायरल लोड कम होता है. HIV से लेकर हाल में कोरोना वायरस की वैक्सीन का ट्रायल भी बंदरों की एक खास प्रजाति रेसस पर किया गया. ये प्रयोग सिनोवेक बायोटेक कंपनी ने बीजिंग में किया था