गामा पहलवान की पुण्यतिथि

Share

ओलंपिक में भारत के लिए पदक जीतने वाले पहलवान सुशील कुमार वैसे तो ट्विटर अकाउंट पर अपने परिचय में खुद को ‘प्राउड इंडियन’ बताते हैं, लेकिन अफ़सोस की बात है कि उन्हें आने वाली पीढ़ियों के सामने जवाब देते नहीं बनेगा. उनके लिए ये बताना मुश्किल होगा कि जिस वक्त भारत महामारी से त्राहि-त्राहि कर रहा था, पहलवान सुशील कुमार (Sushil Kumar) भगोड़े बनकर भाग रहे थे और पुलिस ने उनके सुराग के लिए इनाम तक की घोषणा कर रखी थी.

आप सबने अपने जीवन में कभी ना कभी किसी के मुंह से ज़रूर सुना होगा या बोला होगा- ‘गामा पहलवान हो क्या’? इसी से पता चलता है कि गामा पहलवान की शख्सियत कैसी रही होगी. अविभाजित भारत के अमृतसर में पैदा हुए गामा ने अपने दौर के हर देसी-विदेशी पहलवान को हराया. संयोग से कल गामा पहलवान का जन्मदिन था और आज‌ पुण्य तिथि है. सुशील और गामा पहलवान की तुलना कुश्ती के लिहाज से ठीक नहीं. वो दौर और कुश्ती का तरीका अलग था. लेकिन दोनों पहलवान थे. गामा का असली नाम गुलाम मोहम्मद बख्श था. कम लोग जानते होंगे कि पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की पत्नी कुलसूम नवाज़ गामा की नातिन थीं. खैर, यहां गामा के उस व्यक्तित्व का परिचय ज़रूरी है, जो उन्हें अखाड़े से बाहर भी हीरो साबित करता है.

उम्र में महात्मा गांधी से नौ साल छोटे और नेहरू से 11 साल बड़े गामा पहलवान को आम जनमानस कैसे याद करता है, राही मासूम रज़ा के ‘कटरा बी आर्ज़ू’ में इसका सुंदर ज़िक्र है. भोलेनाथ ऊर्फ भोलू पहलवान की चाय की दुकान होती है. भोलू पहलवान को अक्सर उसके ग्राहक इस बात के लिए छेड़ते थे कि उसने एक मुसलमान पहलवान (गामा) की तस्वीर अपनी दुकान में क्यों लगा रखी है. ऐसे ही एक ग्राहक से भोलू की बहस हो रही थी कि बीच में पत्रकार आशाराम आ गए. अब सुनिए आशाराम और भोलू के बीच की बातचीत- “क्या बात है मामा?” आशाराम ने साइकिल से उतरते हुए कहा. “अरे, बात वही पुरानी है भैया, कि हम्में आधा पंजाब, आधा बंगाल, सिंध-बिलोचिस्तान जाए का गम नहीं है. गम इस बात का है कि सिंध-बिलोचिस्तान के साथ गामा पहलवान भी चले गए पाकिस्तान में.” और सुना है कि बिचारे वहां बड़ी तकलीफ़ से मरे” आशाराम ने कहा. “आप तो नेता हो भैया.”

पहलवान ने कहा, “बाकी ई बात हमसे सुन लीजिए कि परदेस में कोई आरामो से मरे तब्बो तकलीफ़े की बात है. हमसे अभई ई कल के लौंडे पूछते रहे कि हम अपनी दुकान में गामा पहलवान की तस्वीर काहे को टांगे हैं. हम कहा, बेटा ! हम साइदन छ: नहीं तो सात बरस के रहे होंगे तब जब गामा पहलवान हियां एलाहाबाद में दंगल लड़े आए. उस्ताद हम्में ले जाके उनके पैरन में डाल दिया और कहा, इ बच्चे को दुआ दो. पहलवान गामा अखाड़े की एक मुट्ठी मट्टी लेके हमरे बदन में मल दिहिन और बोले बेटा, ऐ मिट्टी की लाज रखना. जब ऊ ना कहिन की हम हिंदू लौंडे को अखाड़े की मट्टी ना लगाएंगे तो हम कैयसे कहें कि ऊ मुसलमान रहे, एह मारे हम अपनी दुकान में उनकी तस्वीर ना टांगेंगे? हिंदू-मुसलमान होना और चीज है, पहलवान होना और चीज है.”

गामा को ये कीर्ति यूं ही नहीं मिली. बात 1947 के बंटवारे की है. सीमावर्ती शहर अमृतसर और लाहौर के बीच एक बड़ी आबादी का आना और जाना हुआ. चारों ओर फैली हिंसा के बीच गामा का परिवार भी अमृतसर से जाकर लाहौर में बस गया. लाहौर और अमृतसर को जुड़वां शहर कहते हैं. लाहौर की गलियां गामा के लिए अनजानी नहीं थीं. गामा जिस मोहनी रोड में जाकर बसे, वहां चारों ओर उन्हें प्यार करने वाला हिंदुओं का परिवार था. गामा का वहां आकर बसना उनके लिए गौरव की बात थी. पड़ोस की गली में मुसलमान रहते थे. सन सैंतालीस में अप्रैल-मई के महीने में जब दंगे जोरों पर थे, गामा पहलवान अपने शागिर्दों के साथ हिंदुओं की गली की पहरेदारी करते थे. गामा ने अपने पड़ोसी हिंदुओं को ये भरोसा दिया था कि आखिरी सांस तक उनकी रक्षा करेंगे और उन्होंने ऐसा किया भी. दंगों के दौरान गामा की गली में हिंदुओं को कोई नुकसान नहीं हुआ.

अब एक और पहलवान की मिसाल सुनिए. 1943-44 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था. उसी दौरान लिखी गई फणीश्वरनाथ रेणु की एक कहानी है- ‘पहलवान की ढोलक’. गांव में अकाल के बाद हैजा फैल जाता है. रोज़ घरों से लाशें उठ रही होती हैं. ऐसे में गांव के भयानक सन्नाटे को तोड़ने के लिए पहलवान पूरी रात ढोलक बजाता है. खुद पहलवान का परिवार भी महामारी की चपेट में आ जाता है, लेकिन वो अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होता. रेणु लिखते हैं- “रात्रि की विभीषिका को सिर्फ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती थी. अवश्य ही ढोलक की आवाज में न तो बुखार हटाने का कोई गुण था और न महामारी की सर्वनाश-गति को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते हुए प्राणियों को आंख मूंदते समय कोई तकलीफ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे. जिस दिन पहलवान के दोनों बेटे क्रूर काल की चपेटाघात में पड़े, असह्य वेदना से छटपटाते हुए दोनों ने कहा था—बाबा! उठा पटक दो वाला ताल बजाओ! ‘चटा्क चट् धा,चटा्क चट् धा…’—सारी रात ढोलक पीटता रहा पहलवान.

बीच-बीच में पहलवानों की भाषा में उत्साहित भी करता था—’मारो बहादुर!’ प्रात:काल उसने देखा- दोनों बच्चे जमीन पर निस्पंद पड़े हैं। दोनो पेट के बल पड़े हुए थे। एक ने दांत से थोड़ी मिट्टी खोद ली थी। एक लंबी सांस लेकर पहलवान ने मुस्कराने की चेष्टा की थी—’दोनो बहादुर गिर पड़े!’ उस दिन पहलवान ने राजा श्यामनंद की दी हुई रेशमी जांघिया पहन ली. सारे शरीर में मिट्टी मलकर थोड़ी कसरत की, फिर दोनों पुत्रों को कंधो पर लादकर नदी में बहा आया. किंतु, रात में फिर पहलवान की ढोलक की आवाज, प्रतिदिन की भांति सुनाई पड़ी. लोगो की हिम्मत दोगुनी बढ़ गई. संतप्त पिता-माताओं ने कहा-‘दोनो पहलवान बेटे मर गए, पर पहलवान की हिम्मत तो देखो, डेढ़ हाथ का कलेजा है!”

साहित्य और समाज ने दिखाया है कि पहलवानों की भूमिका अखाड़ों से आगे भी कुछ होती है. ये ठीक है कि अखाड़े की मिट्टी की जगह अब पहलवानी गद्दों पर होने लगी है, लेकिन इससे सरोकार क्यों बदलने चाहिए? पहलवान हो, क्रिकेटर हो, अभिनेता हो या ऐसा कोई भी सितारा जिसके किए या कहे का पब्लिक पर फर्क पड़ता है, उससे एक आदर्श आचरण की उम्मीद की जाती है. अच्छा होता कि आज छत्रसाल स्टेडियम मानवता के किसी कार्य की वजह से चर्चा में होता. अच्छा होता कि सुशील कुमार जैसे पहलवान पूरे स्टेडियम को महामारी के दौरान एक अस्थायी अस्पताल बनाने की नेक पहल के साथ आगे आते. कुछ ना भी करते तो कम से कम भगोड़े तो नहीं बनते. सुशील पहलवान कम से कम इस बात की लाज तो रख लेते कि आप देश के उन 3225 लोगों में से एक हैं, जिन्हें पद्मश्री का सम्मान मिला है.